आसमाँ में रोज़ जश्न हुआ करते हैं...
आँच सूरज की और चाँद पका करते हैं...
मैं तन्हा बैठ के साहिल पे समझ पाया हूँ..
के समंदर में कुछ आँसू भी बहा करते हैं...
कभी अमराइयाँ रहती थी दरख्तो पे यहाँ...
अब तो मुर्दा कई किसान रहा करते हैं...
कोई तितली, कोई कली है, कोख में मारी...
यहाँ पे ख्वाब भी नालों में बहा करते हैं...
पंख कुतरे, चोंच टूटी, है चमकती चिड़िया...
इसी को लोग क्या सोने की कहा करते हैं...
किसी चूल्हे में, या भट्टी में सुलगता बचपन...
घरोंदे रेत के बस्ती में ढहा करते हैं...
उस गली से गुज़रती नहीं कोई लड़की...
सुना है उस गली मे मर्द रहा करते हैं...
मेरा कुछ बोझ, मेरी नज़्म बाँट लेती है..
मेरा कुछ दर्द, मेरे शेर सहा करते हैं...
9 टिप्पणियाँ:
शब्दों में दर्द समेटा है, वे पीड़ा से अकुलाते हैं..
achhe sher....gahare dard jhalakte hain....very nice one.
वाह क्या बात है.., एक सच्चे हिंदुस्तानी के दिल का सारा दर्द समेट लिया आपने तो बहुत खूब....
कोई तितली, कोई कली है, कोख में मारी...
यहाँ पे ख्वाब भी नालों में बहा करते हैं...
किसी चूल्हे में, या भट्टी में सुलगता बचपन...
घरोंदे रेत के बस्ती में ढहा करते हैं...
उस गली से गुज़रती नहीं कोई लड़की...
सुना है उस गली मे मर्द रहा करते हैं..
वैसे तो इस ग़ज़ल का हर शेर उम्दा है पर ये तीनो तो बहुत ही पसंद आये....दाद कबूल करें।
यहाँ पर ख्वाब भी नालों में बहा करते हैं ...
उस गली से गुज़रती नहीं कोई लड़की...
सुना है उस गली मे मर्द रहा करते हैं...
स्त्रियों के डर , आशंका , पीड़ा सब को स्वर दिया आपने !
एक संक्षिप्त परिचय ( थर्ड पर्सन के रूप में )तस्वीर ब्लॉग लिंक इमेल आईडी के साथ चाहिए , कोई संग्रह प्रकाशित हो तो संक्षिप ज़िक्र और कब से
ब्लॉग लिख रहे इसका ज़िक्र .... कोई सम्मान , विशेष पत्रिकाओं में प्रकाशित हों तो उल्लेख करें rasprabha@gmail.com per
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (07-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
मेरा कुछ बोझ, मेरी नज़्म बाँट लेती है..मेरा कुछ दर्द, मेरे शेर सहा करते हैं...bahut badhiya...
shukriya aap sabhi doston ko
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