ज़िंदगी अब भी उस किताब में मिलती है मुझे...
थोड़ी सूखी हुई, थोड़ी सी महकती सी है...
छुओ किताब तो इक नब्ज़ का एहसास मिले...
वो कली दफ़्न सही, फिर भी धड़कती सी है...
कभी कभी जो रिवाजों की भीड़ में हांफा...
उसी को चूम कर थोड़ी सी ज़िंदगी ली है...
जब भी खोलो किताब लफ्ज़ शायरी सी कहें...
तुमने बेजान से लफ़्ज़ों को मौसिकी दी है...
हमको टूटी मिली इक पंखुड़ी, ये ज़िंदगी की...
हो न हो, तुमने मेरी याद में कमी की है...
मुझे यकीन है कल रात ज़िंदगी रोई...
तभी तो काग़ज़ों में आज कुछ नमी सी है...
13 टिप्पणियाँ:
मुझे यकीन है कल रात ज़िंदगी रोई...
तभी तो काग़ज़ों में आज कुछ नमी सी है...
आह !!!!
बहुत उम्दा!
बरसात का मौसम है भाई!
adbhut
आज कुछ न लिखो स्याही से, लोग कागज को दोष देंगे..
रविवारीय महाबुलेटिन में 101 पोस्ट लिंक्स को सहेज़ कर यात्रा पर निकल चुकी है , एक ये पोस्ट आपकी भी है , मकसद सिर्फ़ इतना है कि पाठकों तक आपकी पोस्टों का सूत्र पहुंचाया जाए ,आप देख सकते हैं कि हमारा प्रयास कैसा रहा , और हां अन्य मित्रों की पोस्टों का लिंक्स भी प्रतीक्षा में है आपकी , टिप्पणी को क्लिक करके आप बुलेटिन पर पहुंच सकते हैं । शुक्रिया और शुभकामनाएं
मुझे यकीन है कल रात ज़िंदगी रोई...
तभी तो काग़ज़ों में आज कुछ नमी सी है...
मन को छूते हुए शब्द ...
मुकम्मल ग़ज़ल.....दाद कबूल करें।
एक यादगार रचना
दिलीप जी कहाँ से लाते हैं आप यह कोमल जज़्बात और यह खूबसूरत अल्फ़ाज़ जो सीधा दिल पर दस्तक देते है ...
khoobsoorat
बेहतरीन.............
bahut bahut shukriya doston
अव्वल दर्जे की बेहेतरीन ग़ज़ल...वाकई बहुत ही उम्दा!!
एक टिप्पणी भेजें