शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते…

Author: दिलीप /


कब्र में ज़िंदगी के हौंसले नहीं होते
सरहदों पे यहाँ, घोंसले नहीं होते

चबा रहे हैं ज़मीं, आसमाँ, फ़िज़ा सारी
यहाँ इंसान कभी पोपले नहीं होते

कहीं सूखे में, खाली आसमाँ है और यहाँ
ये अब्र बाढ़ पर भी खोखले नहीं होते

क्या चीर फाड़ के भूनोगे, खा भी जाओगे
अरे इंसान कभी ‘ढोकलेनहीं होते

 जो अपने घर का पता हमको खुदा दे देता
ये बुतो, मस्जिदों के चोंचले नहीं होते

इस बस्ती में हैं ग़रीब और पास मे ‘मिल’…
यहाँ बच्चे भी कभी तोतले नहीं होते

ये परिंदे जो समझते, इस आग के करतब
शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते

12 टिप्पणियाँ:

वाणी गीत ने कहा…

परिंदे जो समझते तो बस्तियों के बीच कहाँ बसते ...
वाह !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

परिन्दे सब जानते हैं..

vandana gupta ने कहा…

वाह शानदार प्रस्तुति

M VERMA ने कहा…

ये परिंदे जो समझते, इस आग के करतब…
शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते…

बहुत खूब, मासूम हैं ये परिंदे

Prakash Jain ने कहा…

hamesha ke tarah prabhavshaali evam adbhoot...

बेनामी ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल.....दाद कबूल करें।

Pallavi saxena ने कहा…

जो अपने घर का पता हमको खुदा दे देता…
ये बुतो, मस्जिदों के चोंचले नहीं होते…
बहुत ही बेहतरीन रचना ...निशब्द करते भाव आपकी यह कविता में अपनी FB की वाल पर share कर रही हूँ। :)

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत सुन्दर....................
अनु

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

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उम्दा प्रस्तुति के लिए आभार


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***Punam*** ने कहा…

ये परिंदे जो समझते, इस आग के करतब…
शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते…

बहुत खूब.....

Ashish ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Ashish ने कहा…

जो अपने घर का पता हमको खुदा दे देता…
ये बुतो, मस्जिदों के चोंचले नहीं होते…

बहुत गहरी बात...बहुत खूब!!

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