कब्र में ज़िंदगी के हौंसले नहीं होते…
सरहदों पे यहाँ, घोंसले नहीं होते…
चबा रहे हैं ज़मीं, आसमाँ, फ़िज़ा सारी…
यहाँ इंसान कभी पोपले नहीं होते…
कहीं सूखे में, खाली आसमाँ है और यहाँ…
ये अब्र बाढ़ पर भी खोखले नहीं होते…
क्या चीर फाड़ के भूनोगे, खा भी जाओगे…
अरे इंसान कभी ‘ढोकले’ नहीं
होते…
जो अपने घर का पता हमको खुदा दे देता…
ये बुतो, मस्जिदों के चोंचले नहीं होते…
इस बस्ती में हैं ग़रीब और पास मे ‘मिल’…
यहाँ बच्चे भी कभी तोतले नहीं होते…
ये परिंदे जो समझते, इस आग के करतब…
शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते…
12 टिप्पणियाँ:
परिंदे जो समझते तो बस्तियों के बीच कहाँ बसते ...
वाह !
परिन्दे सब जानते हैं..
वाह शानदार प्रस्तुति
ये परिंदे जो समझते, इस आग के करतब…
शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते…
बहुत खूब, मासूम हैं ये परिंदे
hamesha ke tarah prabhavshaali evam adbhoot...
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल.....दाद कबूल करें।
जो अपने घर का पता हमको खुदा दे देता…
ये बुतो, मस्जिदों के चोंचले नहीं होते…
बहुत ही बेहतरीन रचना ...निशब्द करते भाव आपकी यह कविता में अपनी FB की वाल पर share कर रही हूँ। :)
बहुत सुन्दर....................
अनु
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उम्दा प्रस्तुति के लिए आभार
प्रवरसेन की नगरी प्रवरपुर की कथा
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ पहली फ़ूहार और रुकी हुई जिंदगी" ♥
♥शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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ये परिंदे जो समझते, इस आग के करतब…
शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते…
बहुत खूब.....
जो अपने घर का पता हमको खुदा दे देता…
ये बुतो, मस्जिदों के चोंचले नहीं होते…
बहुत गहरी बात...बहुत खूब!!
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