गुस्सा थी तुम एक दिन मुझसे और...
गुस्सा और गर्म गर्म चाय ...
दोनो ही उडेल दिए बेचारे कप में...
कुछ ज़्यादा ही...
कप झेल न पाया, रो दिया...
तुम कान पकड़ कर उसे लाई...
और रख दिया आकर...
उस काग़ज़ पर जिस पर...
नज़्म गढ़ने की मुसलसल कोशिश जारी थी...
तुम मन ही मन हॉर्न बजाते...
यू टर्न लेकर चल दी...
कप डर के चिपक गया काग़ज़ से...
पकड़ का वो गोल निशान अब तक रखा है...
संभाल कर...
जैसे चूम कर तुमने दिया हो कोई कंगन...
आखरी निशानी की तरह...
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आँख लग गयी यूँही...
काग़ज़ के बिस्तर पर...
कहीं से इक ख़याल रेंगता हुआ...
पलकों में घुस आया...
इक अंडा देकर चला गया..
शायद पलकें सेती रहीं उसे...
अब आँख खुली तो देखा अंडा फूटा पड़ा है...
इक मासूम सी नज़्म पैदा हुई है...
लावारिस है..
सोच रहा हूँ अपना नाम दे दूं..
7 टिप्पणियाँ:
चाय पिलाने में कितने भाव लपेट लिये हैं...अद्भुत अवलोकन...
अब इस तरह की रचनाओं की तारीफ भी कैसे की जाए ये समझने में लगे हैं....फिर आते हैं लौट कर :-)
अनु
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-062012) को चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
खुबसूरत ख्याल....हो सके तो पहले रचना ब्लॉग पर डाले बजाय FB के।
दोनो ही ख्याल खूबसूरत्।
bahut sundar khayal sir
रोज़ मर्राह की बातों को खूबसूरत ख्याल की शक्ल देना कोई आपसे सीखे...हम तो मुरीद हो गए आपके!! खुशकिस्मती है की आपके ब्लॉग को देखा!!
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