आखरी निशानी और ख़याल का अंडा...

Author: दिलीप /


गुस्सा थी तुम एक दिन मुझसे और...
गुस्सा और गर्म गर्म चाय ...
दोनो ही उडेल दिए बेचारे कप में...
कुछ ज़्यादा ही...
कप झेल न पाया, रो दिया...
तुम कान पकड़ कर उसे लाई...
और रख दिया आकर...
उस काग़ज़ पर जिस पर...
नज़्म गढ़ने की मुसलसल कोशिश जारी थी...
तुम मन ही मन हॉर्न बजाते...
यू टर्न लेकर चल दी...
कप डर के चिपक गया काग़ज़ से...
पकड़ का वो गोल निशान अब तक रखा है...
संभाल कर...
जैसे चूम कर तुमने दिया हो कोई कंगन...
आखरी निशानी की तरह...
---------------------------------------------------

आँख लग गयी यूँही...
काग़ज़ के बिस्तर पर...
कहीं से इक ख़याल रेंगता हुआ...
पलकों में घुस आया...
इक अंडा देकर चला गया..
शायद पलकें सेती रहीं उसे...
अब आँख खुली तो देखा अंडा फूटा पड़ा है...
इक मासूम सी नज़्म पैदा हुई है...
लावारिस है..
सोच रहा हूँ अपना नाम दे दूं..

7 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

चाय पिलाने में कितने भाव लपेट लिये हैं...अद्भुत अवलोकन...

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

अब इस तरह की रचनाओं की तारीफ भी कैसे की जाए ये समझने में लगे हैं....फिर आते हैं लौट कर :-)

अनु

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-062012) को चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

बेनामी ने कहा…

खुबसूरत ख्याल....हो सके तो पहले रचना ब्लॉग पर डाले बजाय FB के।

vandana gupta ने कहा…

दोनो ही ख्याल खूबसूरत्।

Prakash Jain ने कहा…

bahut sundar khayal sir

Ashish ने कहा…

रोज़ मर्राह की बातों को खूबसूरत ख्याल की शक्ल देना कोई आपसे सीखे...हम तो मुरीद हो गए आपके!! खुशकिस्मती है की आपके ब्लॉग को देखा!!

एक टिप्पणी भेजें