आसमान ने नये पर्दे खरीद लिए हैं...
ग्रे शेड के...
कोने मे हल्के काले से दिखते हैं तो...
लगता है कि ज़ुल्फ तुम्हारी...
जो कल तकिये से अनबन मे टूट गयी थी...
उससे तकिये ने तुरपाई कर दी है...
आसमान के उस पर्दे की...
गर्मी ने जो बूँदें तुम्हारी माथे पर रख छोड़ी थी...
मोती बन गयी सारी...
तुम जागती उससे पहले ही...
बेंच दिए गर्मी ने मोती आसमान को...
देखो न कैसी झालर सी लटका दी है पर्दे से...
सुना है कल रात तुम्हारा बहा था काजल...
इसीलिए ये पर्दे भी अब तक गीले हैं...
देखो न तुम रोती हो जब याद मे मेरी...
सारी दुनिया भीगी भीगी सी लगती है...
एक मैं रोता हूँ...
तो बस कुछ काग़ज़ गीले होते हैं...
कुछ लफ्ज़ उसी मे घुल जाते हैं...
बारिश न हो पर...
यहाँ भी कुछ बरसता ज़रूर है...
8 टिप्पणियाँ:
अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिये हैं।
भाव भीनी रचना
प्रबल भाव ...
सुंदर रचना ...
बड़ी ही रोचक...
बारिश न हो पर...
यहाँ भी कुछ बरसता ज़रूर है...
वाह...बेजोड़...अन्दर तक असर कर गयी आपकी रचना...
नीरज
तुम रोती हो तो बादलों से टपका पानी भी खारा होता है....
भावमय करते शब्दों का संगम
subhanallah.....bahut khubsurat nazm
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