बाज़ार...

Author: दिलीप /

एहसास बहुत बासी हो गये थे...
बदबू मारते थे अब...
ठंडी हवा के बहाने, खिड़की खोल कर फेंक दिए...
चारपाई का एक पाया छोटा था तो...
ख्वाबों के बुरादे की एक छोटी सी तकिया बनाकर...
रख दी पाए के नीचे...
इज़्ज़त की एक मुचडी हुई, फटी चादर...
बिछा दी चारपाई पर...
शर्म पहले दो चोटियों मे गुँथी रहती थी...
चोटी नोच दी थी किसी ने...
शर्म को बेघर कर दिया था...
अब चौखट पर पड़ी रहती है...
अंदर नहीं आती...
वो औरत लाश के मानिंद...
लेट जाती है...
गिद्ध आते हैं, नोच जाते हैं...
समझ नहीं आता...
ये किसका बाज़ार है...
यहाँ कौन बिक रहा है...

12 टिप्पणियाँ:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

क्या कहूँ...निःशब्द हूँ.....
अद्भुत अभिव्यक्ति दिलीप जी.

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बाज़ार मे बिकते हम सब ...

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Archana Chaoji ने कहा…

ओह!!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बाजारों में भावनाओं का क्या मोल..

sonal ने कहा…

बाज़ार में उतरने के लिए सब छोड़ना पड़ता है ....ज़िन्दगी का कडवा सच

सदा ने कहा…

भावमय शब्‍द संयोजन ... उत्‍कृष्‍ट लेखन

vandana gupta ने कहा…

उफ़ …………कडवी हकीकत

Asha Joglekar ने कहा…

बाज़ार है, पैसा फेंको खरीदो । भूक है तो बाज़ार में बेचो जो कुछ भी है तुम्हारे पास ।

बेनामी ने कहा…

ufff kitna marmik.....salam hai aapki kalam ko

बेनामी ने कहा…

bholashah banoli saptari

बेनामी ने कहा…

aap bahiachhe ho ji aapkiba dhai ho

बेनामी ने कहा…

kirapiya aapki aad aatihi mu

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