एहसास बहुत बासी हो गये थे...
बदबू मारते थे अब...
ठंडी हवा के बहाने, खिड़की खोल कर फेंक दिए...
चारपाई का एक पाया छोटा था तो...
ख्वाबों के बुरादे की एक छोटी सी तकिया बनाकर...
रख दी पाए के नीचे...
इज़्ज़त की एक मुचडी हुई, फटी चादर...
बिछा दी चारपाई पर...
शर्म पहले दो चोटियों मे गुँथी रहती थी...
चोटी नोच दी थी किसी ने...
शर्म को बेघर कर दिया था...
अब चौखट पर पड़ी रहती है...
अंदर नहीं आती...
वो औरत लाश के मानिंद...
लेट जाती है...
गिद्ध आते हैं, नोच जाते हैं...
समझ नहीं आता...
ये किसका बाज़ार है...
यहाँ कौन बिक रहा है...
12 टिप्पणियाँ:
क्या कहूँ...निःशब्द हूँ.....
अद्भुत अभिव्यक्ति दिलीप जी.
बाज़ार मे बिकते हम सब ...
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ओह!!
बाजारों में भावनाओं का क्या मोल..
बाज़ार में उतरने के लिए सब छोड़ना पड़ता है ....ज़िन्दगी का कडवा सच
भावमय शब्द संयोजन ... उत्कृष्ट लेखन
उफ़ …………कडवी हकीकत
बाज़ार है, पैसा फेंको खरीदो । भूक है तो बाज़ार में बेचो जो कुछ भी है तुम्हारे पास ।
ufff kitna marmik.....salam hai aapki kalam ko
bholashah banoli saptari
aap bahiachhe ho ji aapkiba dhai ho
kirapiya aapki aad aatihi mu
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