इक ग़ज़ल कुछ बीमार थी...
मर्ज़ क्या था पता नहीं...
शेर दिन-बदिन कमजोर होते जा रहे थे...
तरन्नुम की जाने कितनी शीशियाँ ख़त्म हो गयी...
पर कोई फ़ायदा न हुआ...
एहसासों की टॅब्लेट्स, आँसुओं के कैप्सूल्स...
सब बेकार रहा...
उसकी आख़िरी ख्वाहिश थी...
तुम्हे देखने की...
क्या कहता उसे...
हाथों की खुरचनें रखता रहा उसके माथे पर...
कि शायद तुम्हारी छुवन...
किसी लकीर के खाने मे अभी बची हो...
आज फिर एक ग़ज़ल मर गयी...
अभी बस सीने मे दफ़ना के आया हूँ..
13 टिप्पणियाँ:
@ दिलीप जी, इस बीमार ग़ज़ल के हाल ने हिला कर रख दिया....
उपमेय और उपमाओं में निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि कौन श्रेष्ठ हैं.... मुझे तो दोनों ही ने मुग्ध कर दिया.
मुझे यह विश्वास है कि यह आपकी कालजयी रचना सिद्ध होगी!
behatrin aur lajawab....is gazal ke liye daad kabool karen
अब इसके बाद कहने को क्या बचा सिवाय महसूसने के
जिसे सीने में जगह मिल गयी, वो ग़ज़ल तो अमर हो गयी।
ग़ज़ल जो हो गयी सीने में कैद ....
सुन्दर भाव ...!!
गहरी अभिव्यक्ति, मन में उतरती हुयी।
उस गज़ल को ज़रूरत थी ह्रदय प्रत्यारोपण की......
कोई नया दिल ला देते
:-)
मजाक नहीं...सच्ची बहुत सुंदर, दिल को छूते जज़्बात
अनु
शहर-ए-खमोशा के इंतजामात रुखसती देंगे ,
इल्मदां है , गजल को रूह दे दे
बहुत मार्मिक ...लाजबाब लिखा
मार्मिक प्रस्तुति...
कोमल भाव से लिखी बेहतरीन रचना...
आपकी रचनाएँ आवाक कर देती हैं....
सादर बधाई।
bhawpoorna wa marmik kawita....sahaj shabdo ke sath
बेहतरीन प्रस्तुति...
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