आज बारिश हुई है...

Author: दिलीप /


बादल के पंखों मे कुछ लफ्ज़ बाँध कर भेजे हैं...
बस पहुँचते ही होगे अभी...
छत पर जाना और और खोल लेना उन्हें...
फिर पढ़ कर बिखेर देना ज़मीन पर...
चिंता मत करना, लोग नहीं समझ सकते...
वो तो यही समझेंगे कि आज बारिश हुई है...
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जब बारिश हौले से छूती है...
तो सुबक उठती हैं दीवारें...
उन गर्म दीवारों में...
कुछ पुरानी यादों की बर्फ भी होती है...
जो पिघल उठती है...
उन ठंडी बूँदों की गर्माहट से...
पर दीवारों के आँसू कोई नहीं पोछता..
उन्हे खुद सूखना पड़ता है...
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घड़ी...
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पुरानी उन रसभरी बीती घड़ियों के गुच्छे से...
वो घड़ी मेरे सामने फुट पड़ी...
जब ये घड़ी तुमने मुझे दी थी...
उस दिन नब्ज़ रख दी थी मेरी कलाई पर...
अब यूँ रहती है मेरी कलाई पर...
जैसे तुमने अपनी ही हथेलियाँ रख दी हो...
और हर बार संभाल लेती हों गिरने से...
पर कभी तेज़ भागती है...कभी धीमे...
अब सही वक़्त नहीं बताती...
हाँ पर कोई पिछला 'सही' वक़्त ज़रूर बताती है....
जब सब सही था...

13 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

amazing...

nilesh mathur ने कहा…

बहुत दिन बाद आपकी कोई रचना पढ़ रहा हूँ, बेहतरीन।

vandana gupta ने कहा…

्गज़ब का भाव समायोजन है।

***Punam*** ने कहा…

बादल के पंखों मे कुछ लफ्ज़ बाँध कर भेजे हैं...
बस पहुँचते ही होगे अभी...
छत पर जाना और और खोल लेना उन्हें...
फिर पढ़ कर बिखेर देना ज़मीन पर...
चिंता मत करना, लोग नहीं समझ सकते...
वो तो यही समझेंगे कि आज बारिश हुई है...

लगता है खुद को पढ़ रही हूँ....
या फिर अपने ही मन को कह रही हूँ....

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बादल के पंखों मे कुछ लफ्ज़ बाँध कर भेजे हैं...
बस पहुँचते ही होगे अभी...
छत पर जाना और और खोल लेना उन्हें...
फिर पढ़ कर बिखेर देना ज़मीन पर...
चिंता मत करना, लोग नहीं समझ सकते...
वो तो यही समझेंगे कि आज बारिश हुई है.....

नहीं नहीं जमीन पर ना बिखेरना....
भिगो लेना खुद को....
उस नेह की बारिश में...
लोग समझेंगे
तुम बाल सुखा रही हो छत पर...

:-)

अनु (गुस्ताखी माफ )

दिलीप ने कहा…

Anu ji...waah waah..ek naya hi ayaam de diya aapne to...vedna ki charam seema ko aur charam kar diya aapne..aabhaar..

संध्या शर्मा ने कहा…

वाह...लाजवाब... सचमुच आज शब्द कम पड़ गए तारीफ के लिए

संजय भास्‍कर ने कहा…

कैसे हो दलीप जी
आज कई दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ बेहतरीन और अच्छी रचना...अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं...दलीप भाई

रश्मि प्रभा... ने कहा…

जब बारिश हौले से छूती है...
तो सुबक उठती हैं दीवारें...
उन गर्म दीवारों में...
कुछ पुरानी यादों की बर्फ भी होती है...
जो पिघल उठती है...
उन ठंडी बूँदों की गर्माहट से...
पर दीवारों के आँसू कोई नहीं पोछता..
उन्हे खुद सूखना पड़ता है...तभी तो उनकी मजबूती दिखती है , और दीवारों से बातें भी होती हैं

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

अद्भुत....

Asha Joglekar ने कहा…

वाह बारिश का एक नया रूप ।
दीवारों के आंसू कोई नही पोंछता ।
और पिछला सह सही वक्त बताती घडी ।

सब सुंदर सब ही सुंदर ।

Gyan Darpan ने कहा…

लाजबाब

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Anamikaghatak ने कहा…

badhiya...behtarin

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