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2013
(33)
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जुलाई
(12)
- बड़ा बेदम निकलता है...
- भूख बढ़ती ही रही और ज़िंदगी नाटी रही...
- ख्वाब में चावल के कुछ दाने दिखे...
- महफ़िलों में एक जलती नज़्म गा लेते हैं हम...
- चंद्रशेखर आज़ाद को जलते हुए सुमन..
- पेट और सीने की लौ, लय में पिरोकर देखिए...
- हो सके तो दिल को ही अपने शिवाला कीजिए...
- कुछ ऐसे रिश्ते होते हैं, जो सौदेबाज़ नहीं होते...
- सबकी सुरक्षा का बिल ला रहे हैं वो....
- चुनावी भाषणों में अब, भुना रहे हैं यहाँ..
- आओ मिलकर ज़रा इस पर भी गौर करते हैं...
- अभी मेरे लिए हिंदोस्तान बाकी है...
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जुलाई
(12)
8 टिप्पणियाँ:
खरी खरी बात कहती मारक गज़ल
अजब कहानी कहते सत्ता के गलियारे,
जीत कल्पनागीत, यहाँ जन पल पल हारे।
आज लाशें चला रही हैं रथ सियासत का...
कई परतों में ज़िंदगी, दबा रहे हैं यहाँ...
एक शायर ने तब लिखी थी इन्क़लाबी ग़ज़ल...
चुनावी भाषणों में अब, भुना रहे हैं यहाँ...
Bade teekhe aashar hain....gahra matlab liye hue!
वर्तमान का सच
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------
मौत के बाद मेरी जाँ बचा रहे हैं यहाँ...
आज लाशें चला रही हैं रथ सियासत का...
कई परतों में ज़िंदगी, दबा रहे हैं यहाँ...
एक शायर ने तब लिखी थी इन्क़लाबी ग़ज़ल...
चुनावी भाषणों में अब, भुना रहे हैं यहाँ...
bahut badhiya
सऊर है नहीं जिनको सड़क पे चलने का...
गाड़ियाँ वो मुल्क़ की चला रहे हैं यहाँ...
आज लाशें चला रही हैं रथ सियासत का...
कई परतों में ज़िंदगी, दबा रहे हैं यहाँ...
सच को उजागर करती शेअर !
latest post क्या अर्पण करूँ !
latest post सुख -दुःख
Very nice ..as usual
वाह! लाजवाब। तात्कालिक परिस्थितियों पर चोट करती रचना।
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