झूठी आज़ादी की बस, इतनी ही परिपाटी रही...
भूख बढ़ती ही रही और ज़िंदगी नाटी रही...
जब सियासी दाँव, उनको खेलने का मन हुआ...
गड्डिया लोगों की हैं पीसी गयी, बाँटी गयी...
जिस्म सारा नोच कर खा ही चुके ये भेड़िए...
हड्डियाँ मज़हब के पैमाने से हैं छान्टी गयी...
ख्वाब इंसानी बढ़ा, कितने घरौंदे तोड़ कर...
घर के बूढ़े पेड़ की सब डालियां काटी गयी...
घर के मंदिर में सजी है मूर्ति देवी की, पर...
ख्वाब इक गुड़िया ने देखा, और वो डान्टी गयी...
बोझ क्या खेतों पे है, ये उस नहर से पूछिए...
था जिसे पानी से भरना, लाश से पाटी गयी...
भूख बढ़ती ही रही और ज़िंदगी नाटी रही...
जब सियासी दाँव, उनको खेलने का मन हुआ...
गड्डिया लोगों की हैं पीसी गयी, बाँटी गयी...
जिस्म सारा नोच कर खा ही चुके ये भेड़िए...
हड्डियाँ मज़हब के पैमाने से हैं छान्टी गयी...
ख्वाब इंसानी बढ़ा, कितने घरौंदे तोड़ कर...
घर के बूढ़े पेड़ की सब डालियां काटी गयी...
घर के मंदिर में सजी है मूर्ति देवी की, पर...
ख्वाब इक गुड़िया ने देखा, और वो डान्टी गयी...
बोझ क्या खेतों पे है, ये उस नहर से पूछिए...
था जिसे पानी से भरना, लाश से पाटी गयी...
3 टिप्पणियाँ:
सच कहे हैं..
सुन्दर अभिव्यक्ति...
सच ही तो है।
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