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2013
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जुलाई
(12)
- बड़ा बेदम निकलता है...
- भूख बढ़ती ही रही और ज़िंदगी नाटी रही...
- ख्वाब में चावल के कुछ दाने दिखे...
- महफ़िलों में एक जलती नज़्म गा लेते हैं हम...
- चंद्रशेखर आज़ाद को जलते हुए सुमन..
- पेट और सीने की लौ, लय में पिरोकर देखिए...
- हो सके तो दिल को ही अपने शिवाला कीजिए...
- कुछ ऐसे रिश्ते होते हैं, जो सौदेबाज़ नहीं होते...
- सबकी सुरक्षा का बिल ला रहे हैं वो....
- चुनावी भाषणों में अब, भुना रहे हैं यहाँ..
- आओ मिलकर ज़रा इस पर भी गौर करते हैं...
- अभी मेरे लिए हिंदोस्तान बाकी है...
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जुलाई
(12)
13 टिप्पणियाँ:
सच झिंझोड़ता कथ्य..
so inspiring..
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ३ महान विभूतियों के नाम है २३ जुलाई - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सुन्दर प्रस्तुति ....!!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (24-07-2013) को में” “चर्चा मंच-अंकः1316” (गौशाला में लीद) पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ापने लिखा... हमने पढ़ा... और भी पढ़ें...इस लिये आपकी इस प्रविष्टी का लिंक 26-07-2013 यानी आने वाले शुकरवार की नई पुरानी हलचल पर भी है...
आप भी इस हलचल में शामिल होकर इस की शोभा बढ़ाएं तथा इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और नयी पुरानी हलचल को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी हलचल में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान और रचनाकारोम का मनोबल बढ़ाएगी...
मिलते हैं फिर शुकरवार को आप की इस रचना के साथ।
जय हिंद जय भारत...
मन का मंथन... मेरे विचारों कादर्पण...
बदलाव का बवंडर चौखट पे फिर खड़ा है...
गूंगे गले से निकले आवाज़ ज़रूरी है...
जिस मुल्क के महल अब बेफ़िक्र सो रहे हैं...
उस मुल्क में जगा इक फुटपाथ ज़रूरी है..
झकझोर देने वाली रचना ....
सब कुछ ज़रूरी है... :)
सच है आज तो आज़ाद की जरूरत और भी ज्यादा है ...
बारूद हो नसों में, आँखों में बेकली हो...
अब फिर से मुल्क को इक 'आज़ाद' ज़रूरी है...
- बहुत ज़रूरी है !
ओजस्वी रचना
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बेहतरीन
बहुत खूब!
HindiPanda
अब खून में आतिश का आगाज़ ज़रूरी है...
ज़हनी गुलामों होना आज़ाद ज़रूरी है...
हो बाँसुरी के स्वर से गूंज़ीं भले फ़िज़ायें...
पर चक्र सुदर्शन भी इक हाथ ज़रूरी है...
काग़ज़ से रगड़ खाकर चिंगारियाँ उठाए...
स्याही में क़लम की अब कुछ आग ज़रूरी है...
तुम अश्क़, चाँद, मय से ग़ज़लें सजाओ लेकिन...
जलती हुई चिता की भी राख ज़रूरी है...
यूँ मुफ़लिसी के दाने, खाएँगे पेट कब तक...
सूखे शजर से निकले इक शाख ज़रूरी है...
बदलाव का बवंडर चौखट पे फिर खड़ा है...
गूंगे गले से निकले आवाज़ ज़रूरी है...
जिस मुल्क के महल अब बेफ़िक्र सो रहे हैं...
उस मुल्क में जगा इक फुटपाथ ज़रूरी है...
दिल्ली की सल्तनत पे क़ब्ज़ा है मसख़रों का...
संजीदगी का उनको अब पाठ ज़रूरी है...
बारूद हो नसों में, आँखों में बेकली हो...
अब फिर से मुल्क को इक 'स्वतंत्रता' ज़रूरी है...
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