वो पहला ही महीना था, जो है गुज़रा बरस, उसका...
थे जब इक माह की खिटपिट ख़तम हो, हम मिले फिर से...
सजाए फिर से कुछ सपने, लगाए बाग फूलों के...
जो काँटे थे हमारे बीच उनको छांट आए थे...
हो शायद याद तुमको भी, मेरे हाथों पे तेरा सर...
सिमट कर सो रही थी तुम, मेरी बाहों के बिस्तर पर...
तुम्हारे गाल पर हल्का सा इक बोसा दिया मैने...
वो पूरी रात काटी थी, तुम्हीं को देखकर मैने...
मुझे लगता था ये रातें मिलाकर एक दिन मेरी..
ये सारी ज़िंदगी शायद मुकम्मल हो ही जाएगी...
मैं अब भी सोचता हूँ रात मे उठकर के ख्वाबों से...
तुम्हारे हाथ की अदरक की चाय, फिर से मांगू मैं...
तुम्हे फिर से कहूँ की भूख से बेचैन हूँ बच्चे...
वो तुम फिर दौड़ कर जल्दी से कुछ मेरे लिए लाओ...
तुम्हे फिर से कभी डांटू तुम्हारी ग़लतियों पर मैं...
के तुम फिर बात कोई डर के यूँ मुझसे छिपा जाओ...
कहीं जाने की खातिर ज़िद करो, मुझको मनाओ तुम...
मगर इस बार मेरे लब से कोई न नहीं निकले...
चलो जायें वही दोनो जहाँ अक्सर थे जाते हम...
ज़रा बैठे, मगर अब हाथ मे हो हाथ दोनो के...
निकल जाएँ यूँ रातों को, चलो नापें वही सड़कें...
के जिनपर साथ हम दोनो ने कितने ख्वाब बुन डाले...
चलो फिर से तुम्हे बाज़ार की रंगत दिखाऊँ मैं..
मैं जिनको हाँ कहूँ तुम फिर वही कपड़े ख़रीदो न...
न जाने ऐसे कितने ही अधूरे ख्वाब हैं मेरे..
किसे बोलूं ये सारे ख्वाहिशें तुम बिन अधूरी हैं...
मुझे कुछ भी न दो लेकिन मगर इक काम ये कर दो...
चली आओ न सब कुछ छोड़ कर,क्यूँ दूर हो मुझसे, ...
ये माना साल बदला है, मगर हसरत वही ही है....
के फिर से पास आ जाओ, ये फिर पहला महीना है...
थे जब इक माह की खिटपिट ख़तम हो, हम मिले फिर से...
सजाए फिर से कुछ सपने, लगाए बाग फूलों के...
जो काँटे थे हमारे बीच उनको छांट आए थे...
हो शायद याद तुमको भी, मेरे हाथों पे तेरा सर...
सिमट कर सो रही थी तुम, मेरी बाहों के बिस्तर पर...
तुम्हारे गाल पर हल्का सा इक बोसा दिया मैने...
वो पूरी रात काटी थी, तुम्हीं को देखकर मैने...
मुझे लगता था ये रातें मिलाकर एक दिन मेरी..
ये सारी ज़िंदगी शायद मुकम्मल हो ही जाएगी...
मैं अब भी सोचता हूँ रात मे उठकर के ख्वाबों से...
तुम्हारे हाथ की अदरक की चाय, फिर से मांगू मैं...
तुम्हे फिर से कहूँ की भूख से बेचैन हूँ बच्चे...
वो तुम फिर दौड़ कर जल्दी से कुछ मेरे लिए लाओ...
तुम्हे फिर से कभी डांटू तुम्हारी ग़लतियों पर मैं...
के तुम फिर बात कोई डर के यूँ मुझसे छिपा जाओ...
कहीं जाने की खातिर ज़िद करो, मुझको मनाओ तुम...
मगर इस बार मेरे लब से कोई न नहीं निकले...
चलो जायें वही दोनो जहाँ अक्सर थे जाते हम...
ज़रा बैठे, मगर अब हाथ मे हो हाथ दोनो के...
निकल जाएँ यूँ रातों को, चलो नापें वही सड़कें...
के जिनपर साथ हम दोनो ने कितने ख्वाब बुन डाले...
चलो फिर से तुम्हे बाज़ार की रंगत दिखाऊँ मैं..
मैं जिनको हाँ कहूँ तुम फिर वही कपड़े ख़रीदो न...
न जाने ऐसे कितने ही अधूरे ख्वाब हैं मेरे..
किसे बोलूं ये सारे ख्वाहिशें तुम बिन अधूरी हैं...
मुझे कुछ भी न दो लेकिन मगर इक काम ये कर दो...
चली आओ न सब कुछ छोड़ कर,क्यूँ दूर हो मुझसे, ...
ये माना साल बदला है, मगर हसरत वही ही है....
के फिर से पास आ जाओ, ये फिर पहला महीना है...
12 टिप्पणियाँ:
मगर इस बार मेरे लब से कोई न नहीं निकले...
चलो जायें वही दोनो जहाँ अक्सर थे जाते हम...
ज़रा बैठे, मगर अब हाथ मे हो हाथ दोनो के...
निकल जाएँ यूँ रातों को, चलो नापें वही सड़कें...
के जिनपर साथ हम दोनो ने कितने ख्वाब बुन डाले...
Very touching!
ये माना साल बदला है, मगर हसरत वही ही है....
के फिर से पास आ जाओ, ये फिर पहला महीना है...
मर्म स्पर्शी ....अद्वितीय ..
बहुत ही सुंदर रचना ......
dil k nazuk ehsaso ko ukerti sunder abhivyakti.
ऐसी ही हसरत हमें जिलाए रखती हैं..आह!!! बहुत सुन्दर..
Kuch naye shabd talash raha hoon aapki taarif ke liye....jab tak na mile...vahi purane Behtareen, Adbhut...Bahut khoob...Bahut sundar aadi se kaam chalaiye....
Janab gazab hai aapki lekhni...sachmuch:-)
ख्वाब बुनेम कुछ और साल इस...
बहुत सुन्दर रचना है।बधई।
ये हसरत बहुत दिल से निकली है खुदा ने चाह तो दिल तक ज़रूर पहुंचेगी.........आमीन|
वाह..... बेजोड़ रचना. ...बेजोड़ प्रस्तुति ...बधाई
नीरज
के फिर से पास आ जाओ, ये फिर पहला महीना है...
khoobsoorat....
कोमल भवाओन से सजी सुंदर पोस्ट बधाई समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका सवागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/
bahut khoob
एक टिप्पणी भेजें