मेरी आँखों से ये आँसू, गिरा करते थे पहले भी...
तुम्हारी याद से लेकिन वो अब मोती मे ढलते है...
वो कहते हैं कि सूना घर है, इसको बेंच दो लेकिन...
किसी की याद के साए, अभी भी घर मे रहते हैं...
वो कहते हैं की रो लो एक दिन, फिर भूल जाना सब...
उन्ही के गम के परबत हैं ये धीरे से पिघलते हैं...
मैं कैसे काट दूं आँगन के इस बूढ़े से बरगद को...
अभी इसपर गिलहरी के कई बच्चे उछलते हैं....
वहाँ हर आदमी मुझको मिला हड्डी के ढाँचे सा...
वहाँ चूल्हे नही जलते वहाँ बस दिल सुलगते हैं...
ढके हैं तन यहाँ पर सब, शहर मे शर्म बाकी है...
अभी पिछड़ा हुआ है ये, यहाँ सिक्के भी चलते हैं...
वो चिड़िया कह रही थी रात मे, बच्चों से धीरे से...
शहर की ओर मत जाना, वहाँ इंसान रहते हैं...
बहुत खोजा है मैने प्यार को तेरे शहर मे पर...
मगर अफ़सोस सबके दिल यहाँ खाली निकलते हैं....
मुझे कहते है सारे, मुल्क अब आज़ाद है मेरा...
भगत जैसे अभी भी क्यूँ, मगर फाँसी पे चढ़ते हैं...
तुम्हारा घर हरा है तो वही सावन भी आएगा...
ये बस महलों की है दुनिया, यहाँ फुटपाथ मरते हैं..
22 टिप्पणियाँ:
मैं कैसे काट दूं आँगन के इस बूढ़े से बरगद को...
अभी इसपर गिलहरी के कई बच्चे उछलते हैं....
बहुत बढ़िया...
आप कमाल का लिखते हैं.
राम रामजी...
"मैं कैसे काट दूं आँगन के इस बूढ़े से बरगद को...
अभी इसपर गिलहरी के कई बच्चे उछलते हैं.."
हर पंक्ति दिल को छूती हुई सी गुजरी....
करारे वयंग्य और मासूम सी भावनाओं का संग यहाँ प्रस्तुत किया आपने...
कुँवर जी,
Hamesh ki tarah Benamoon, behtareen...Adbhoot..
ek se ek sher....
वो कहते हैं कि सूना घर है, इसको बेंच दो लेकिन...
किसी की याद के साए, अभी भी घर मे रहते हैं...
waah
वत्स!
अभी तुम्हारी सारी कवितायें पढ़ गया... सिर्फ पढ़ा ही नहीं, सुनाता चला गया अपने मित्र चैतन्य आलोक को (संवेदना के स्वर).. मेरी आवाज़ में तुम्हारी कवितायें और भी खूबसूरत लगती हैं.. :)
और मैंने उनसे यही कहा कि कुछ लोग मेरे दिल में रहते हैं..और उनमें से एक तुम हो!! तुम्हारी कविता पर कमेन्ट करना मेरे बस की बात नहीं.. जिसे दिल से महसूस करो, उसके बारे में कुछ कहा जा सकता है क्या जुबान से??
ye mera bhhagy hai ki aap sabka itna ashirwaad milta hai...yunhi samhale rahiye...
मुझे कहते है सारे, मुल्क अब आज़ाद है मेरा...
भगत जैसे अभी भी क्यूँ, मगर फाँसी पे चढ़ते हैं...
इस शे’र को पढ़ने के बाद सलिल भाई का कमेंट ...म्हारी कविता पर कमेन्ट करना मेरे बस की बात नहीं.. जिसे दिल से महसूस करो, उसके बारे में कुछ कहा जा सकता है क्या जुबान से??
भी मेरा है।
bahut hi khubsurati se darsan ko kavyanjali me ikattha kiya hai ...bahut umda rachna
मैं कैसे काट दूं आँगन के इस बूढ़े से बरगद को...
अभी इसपर गिलहरी के कई बच्चे उछलते हैं....
वहाँ हर आदमी मुझको मिला हड्डी के ढाँचे सा...
वहाँ चूल्हे नही जलते वहाँ बस दिल सुलगते
Waqayee gazab kee panktiyan hain!
मैं कैसे काट दूं आँगन के इस बूढ़े से बरगद को...
अभी इसपर गिलहरी के कई बच्चे उछलते हैं....
गजब,लाजबाब.
बहुत ही उम्दा लगी आपकी प्रस्तुति.
दिल को झकझोरती हुई.
नववर्ष की आपको बहुत बहुत शुभकामनाएँ.
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
हर शेर लाजवाब...नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ ।
एक एक शेर अद्भुद.... वाह !! वाह!! वाह!!
मैं कैसे काट दूं आँगन के इस बूढ़े से बरगद को...
अभी इसपर गिलहरी के कई बच्चे उछलते हैं...
आपकी रचनाएँ अपना प्रभाव छोड़ने में समर्थ हैं ! बधाई !
मैं कैसे काट दूं आँगन के इस बूढ़े से बरगद को...
अभी इसपर गिलहरी के कई बच्चे उछलते हैं....
वहाँ हर आदमी मुझको मिला हड्डी के ढाँचे सा...
वहाँ चूल्हे नही जलते वहाँ बस दिल सुलगते हैं...
अति सुन्दर !
वो कहते हैं की रो लो एक दिन, फिर भूल जाना सब...
उन्ही के गम के परबत हैं ये धीरे से पिघलते हैं...
बहुत सुंदर पंक्तियाँ !
behad sundar rachna...aik aik sher me bimb bahut khoobsoorat.. Umda...
bahut bahut dhanywaad doston
बहुत बेहतरीन..........
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बेहतरीन..
बेहतरीन लेखन....शुभकामनाएं
kya baat hai bhai sahab aap to chha gaye
kya baat hai bhai sahab aap to chha gaye
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