याद की आँच बढ़ाने की ज़रूरत क्या है...
ये भीगा खत यूँ जलाने की ज़रूरत क्या है...
आना जाना तो बदस्तूर लगा रहता है...
फिर भला दिल को लगाने की ज़रूरत क्या है...
सामने आँख के जब ख्वाब जी रहा हो कोई....
तो मुई आँख सुलाने की ज़रूरत क्या है...
वो तो जब तक भी रहा, मेरा एक हिस्सा था...
ऐसे साथी को भुलाने की ज़रूरत क्या है...
भरी महफ़िल में जीती जागती ग़ज़ल हो कोई...
तो वहाँ नज़्म सुनाने की ज़रूरत क्या है....
जिसने इक बार कभी तेरा हुस्न चखा हो...
उसे कुछ और अब खाने की ज़रूरत क्या है...
खून की जितनी सियासत हो करो, उसमें मगर....
खुदा को बेवजह लाने की ज़रूरत क्या है..
9 टिप्पणियाँ:
वाह.....
लाजवाब गज़ल..
अनु
याद धीरे धीरे सुलगने दो..
वाह ... बहुत ही बढिया ।
बहुत-बहुत बेहतरीन गजल...
आखिरी शेर सबसे उम्दा लगा।
bahut hi sundar sir ji
भरी महफ़िल में जीती जागती ग़ज़ल हो कोई...
तो वहाँ नज़्म सुनाने की ज़रूरत क्या है....
Ek aur adbhut bhaav....benamun rachna
shukriya doston
एक रिश्ते की यूँ भी कहानी रही...
वो निभा न सके, हम निभाते रहे..
हर शेर एक कहानी है
शायद तुम्हारी हो शायद मेरी है
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