दूर इक मुहल्ले में...
मज़हब नन्गई पर उतर आए थे...
बहुत भूखे थे शायद...
बस्तियाँ पका रहे थे...
खून मे डुबो डुबो कर माँस भुन रहा था...
आँसुओं में खून मिलाकर पी रहे थे...
खून की मय चढ़ गयी थी ...
झूम रहे थे, जश्न मना रहे थे...
इतने भूखे थे कि जाने कितनी इज़्ज़तें...
यूँही कच्ची चबा गये...
इधर इस मुहल्ले में सब ख़ौफज़दा थे...
बस मिन्कू खुश था...
दिन भर की प्लानिंग कर रहा था...
आज स्कूल
में छुट्टी जो थी...
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जबसे क़ानून बन गया है...
कि पेड़ काटना ज़ुर्म है...
झोपड़ी के इर्द गिर्द...
कई इमारतें उग आई हैं...
हरिया को अब टूटते तारे दिखते ही नहीं...
अब वो कोई दुआ माँग नहीं पाता...
आजकल वो इमारतों मे काम माँगता है...
9 टिप्पणियाँ:
दोनों ही गहरा कटाक्ष करती हुयी..
बाह्य परिवर्तन आंतरिक सोच .... बहुत सूक्ष्म दृष्टि से देखा है
्दोनो रचनायें बेजोड
bahut khub.
minku ki planning punch sahi hai
naa kah ke bhi kah diya aapne, bachho massom hote hain. nafrat aur gussa to bado ke abhushan hain.
उफ़ दोनों ही ज़बरदस्त और मार्मिक.....फैन हो गया हूँ आपका ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (16-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
मर्म स्पर्श करती हुई ....
गहन अभिव्यक्तियाँ ....
बहुत खूब, उम्दा काव्याकृति
मिलिए सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष से रामगढ में,
जहाँ रचा गया मेघदूत।
दोनों ही रचनाओं में काफी गहराई है...
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