बूँद...
बड़ी उम्मीद से निकली थी घर से...
सोचा था एक दिन कोई नदी ब्याह लेगी उसे...
फिर एक सागर की हो जाएगी...
उसे मालूम न था...
शहर की सड़कों में गढ्ढे बड़े होते हैं...
फँस गयी एक गढ्ढे में...
पहिए आए बहुत से...
रौंद कर निकल गये...
सबको थाम कोशिश करती रही भागने की...
किसी ने थामा नहीं..
थामा भी, तो कुछ दूर ले जाकर पटक दिया...
आज उसी गढ्ढे मे दफ़्न हो गयी...
7 टिप्पणियाँ:
दफ़्न होती मजबूरी को सुंदर शब्द दिये ...!!
शुभकामनायें.
BEHTAREEN....RACHNA...SUNDAR BLOG
ISE BHI PADHEN:-
"कुत्ता घी नहीं खाता है "
http://zoomcomputers.blogspot.in/2012/06/blog-post_29.html
अपने अकेलापन को दूर करने के लिए आपको कितने लोंगो की आवश्यकता पड़ेगी?.....अरशद अली
http://dadikasanduk.blogspot.in/2012/06/blog-post.html
बहुत ही खुबसूरत नज़्म।
उफ़ यह हश्र
उफ़ ………शायद यही है ज़िन्दगी
आह!!!!!!!
वह फिर वाष्पित हो अपनी आस पूरी करेगी..
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