यूँही झाड़ियों मे खेलता रहता था...
बारिश मे जब बूँदें उछल उछल कर थक जाती...
तब चीटियाँ अक्सर आती...
मेरी चौड़ी बाहों पर चढ़ती...
नीचे कुल्ली भर पानी के स्वीमिंग पूल में कूद जाती...
बरगद बाबा, पड़ोस वाले नीम ताऊ...
तुलसी बुआ सब थे वहाँ...
जब मैं सुबह देर तक सोता रहता...
नीम ताऊ अक्सर ऊपर से अपने फल गिराते...
चोट न लग जाए...
तो पहले पत्तों का पीला कंबल भी डाल देते थे...
मैं सुस्त धीरे धीरे रेंग कर...
तुलसी बुआ के पास पहुँच जाता...
रोज़ मुझे कुछ इत्र डालकर ओस से नहलाती...
दिन भर महक आया करती...
बरगद बाबा तो बहुत बूढ़े हो गये थे..
लाठियों पर चलते...
अक्सर उनकी लाहती पकड़कर उन्हे घुमा लाता...
थोड़ा बड़ा हुआ तो नामकरण की बारी आई...
आदमी को बुलाया गया पर...
उस दिन सब बदल गया...
मेरा वो अपना घर..रिश्ते सब छूट गये...
आदमी ले गया मुझे झपट्टा मार के...
मेरा नाम जो रखा था उसने...
मनी प्लांट....
7 टिप्पणियाँ:
http://kuchmerinazarse.blogspot.in/2012/06/blog-post_13.html
:).. aapki har rachna ka jabab nahi.. kitni khubsurati se maniplant ke ird gird tana bana bun kar saja diya:) simply superb boss!
waah
वाह बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
amazing....no words
पेड़ पौधों के अंतरंग संबंधों की कथा..
दिलीप जी,
आप पिछले कुछ समय से ऎसी रचनाएँ कर रहे हैं जो संवेदनशीलता का नया अध्याय कह रही हैं.
लगता है जैसे ... साँचों के बंधन में बंधे-बंधे थकावट-सी आ गयी थी.... और अब नवीन ऊर्जा से भरकर मन के भावों को झंकृत कर रहे हैं.
आनंद आता है.... आपकी रचनाओं को पढ़कर.
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