रात को सस्ते मे मिल गया शायद...
कुछ सुर्ख, कुछ काले कद्दूकस से...
उस एक पाव सूरज को घिसे जा रही है...
तारे भूखे हैं बहुत आज...
अमावस है न...
चाँद की बोरी कल चुक गयी थी...
पर लगता है...
आज रसोई महकेगी...
आज सूरज का हलवा बनेगा...
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कल रात मैं दिल के..
प्रयाग मे था, संगम पर खड़ा...
देख रहा था त्रिवेणी को...
उजली सी ग़ज़ल, स्याह सी मय...
तुम दिखी तो नहीं, पर जानता हूँ...
उन दोनो के नीचे तुम...
धीरे से बह रही थी...
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याद है तुमने एक बार तोहफे में...
राधा कृष्ण दिए थे...
पत्थर के...
तुम दूर क्या हुई..
अब उनमें भी दरारें आ गयी हैं..
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तुम्हारी याद...
जानता हूँ सेहत के लिए ठीक नहीं...
पर छोड़ी नहीं जाती...
आदत जो पड़ गयी है...
इसलिए अब फिल्टर लगा कर पीता हूँ...
13 टिप्पणियाँ:
सभी क्षणिकाएन बहुत सुंदर ...
भावों से गुँथा शब्द समुच्चय..
सूरज का हलवा .... ओह , गरमागरम
बड़ा मुश्किल हो जाता है कमेन्ट करना......
अब टिप्पणी के रूप में कोई निबंध तो नहीं लिख सकते न!!!!
अनु
कमाल है...मंत्रमुग्ध कर देते हैं आप सच कहूँ तो आपकी कलम में कभी कभी तो गुलज़ार साहब का गुमान होता है......सूरज का हलवा, फिल्टर ....वाह ।
kamal ki kshanikaayen hain. seedhe dil me jagah bana rahi hain.
वाह ... बहुत खूब ।
क्या कहूँ ? निशब्द हो जाती हूँ।
यादों को फ़िल्टर करने की यह अदा अच्छी लगी
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उम्दा लेखन, बेहतरीन अभिव्यक्ति
हिडिम्बा टेकरी
चलिए मेरे साथ
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ पहली बारिश में गंजो के लिए खुशखबरी" ♥
♥सप्ताहांत की शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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याद है तुमने एक बार तोहफे में...
राधा कृष्ण दिए थे...
पत्थर के...
तुम दूर क्या हुई..
अब उनमें भी दरारें आ गयी हैं..
सारी ही क्षणिकाए बेहद सुंदर दिलीप जी । पर ये वाली ज्यादा अच्छी लगी ।
उत्तम अतिउत्तम
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