सियासत और मज़हब का सा रिश्ता हो गया
हूँ...
बड़ी जद्दोजहद के बाद इंसां हो गया हूँ...
मुझे सिर पर चढ़ाया, डूबने को फेंक आए...
मैं पत्थर का कोई बेबस, खुदा सा हो गया हूँ...
मेरे अपने, मेरे चुकने की राहें ताकते हैं...
पुराने क़र्ज़ का कोई, बकाया हो गया हूँ...
तुम्हारे साथ था तो आसमाँ ढकने चला था...
तुम्हारे बाद इक उधड़ा सा धागा हो गया हूँ...
यहाँ पर लोग पास आए, बुझाई प्यास अपनी...
मगर लगता है अब सूखे कुएँ सा हो गया हूँ...
तुम्हारा साथ शायद सिर्फ़ इक शाही भरम था...
मैं अब बस वक़्त के हाथों का प्यादा हो गया हूँ...
कई ग़ज़लें जो दिल के बोझ से कुचली गयी हैं...
उन्हीं का ख़ूं से लथपथ एक हिस्सा हो गया हूँ...
मुकम्मल हो सकूँ शायद, मेरी किस्मत नहीं ये...
अधूरा ही चला था, फिर अधूरा हो गया हूँ...
10 टिप्पणियाँ:
मुकम्मल हो सकूँ शायद, मेरी किस्मत नहीं ये...
अधूरा ही चला था, फिर अधूरा हो गया हूँ...
bahut sundar ...
मुझे सिर पर चढ़ाया, डूबने को फेंक आए...
मैं पत्थर का कोई बेबस, खुदा सा हो गया हूँ...
अच्छा शेर.....................
अनु
अधूरा अधूरा,
भरा सा, जरा सा,
धीरे से पूछो,
अभी भी हरा सा,
मुकम्मल हो सकूँ शायद, मेरी किस्मत नहीं ये...
अधूरा ही चला था, फिर अधूरा हो गया हूँ...
लाज़वाब...
शब्दों में छिपा दर्द साफ झलक रहा है ...हमेश की तरह जानदार...
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बेहतरीन रचना
केरा तबहिं न चेतिआ, जब ढिंग लागी बेर
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ संडे सन्नाट, खबरें झन्नाट♥
♥ शुभकामनाएं ♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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तुम्हारा साथ शायद सिर्फ़ इक शाही भरम था...
मैं अब बस वक़्त के हाथों का प्यादा हो गया हूँ...
... Bahut hi behtareen ek se badh ke ek.,
बहुत शानदार प्रस्तुति।
बेहतरीन और लाजवाब।
मुझे सिर पर चढ़ाया, डूबने को फेंक आए...
मैं पत्थर का कोई बेबस, खुदा सा हो गया हूँ...
अनुपम भाव ...
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