कल मैं कूड़ा-दान न रहा...

Author: दिलीप /


सुबह होने से पहले ही..
कोई आकर मुझे जगा देता है...
दिन भर की गाढ़ी कमाई छीन ले जाता है मुझसे...
मैं बस ताकता रहता हूँ...
जूठन, काग़ज़ के पुर्ज़े, सड़ी गली पन्नीयाँ...
और जाने क्या क्या...
सब ले जाता है...
और मैं कूड़ा-दान फिर दिन भर...
भिखारी की तरह खड़ा रहता हूँ...
कोई करीब आता है..कुछ देता है...
पर प्यार से पूचकारता नहीं...
अछूत जो ठहरा...
कुछ तो दूर से ही निशाने का खेल खेलते हैं...
जब नहीं जाता मेरे अंदर, तो उठाते नहीं...
चले जाते हैं...
ये हार जीत की बात थोड़े ही है....
पर कल रात कुछ जल्दी ही उठ गया मैं...
एक बच्चे के रोने की आवाज़ से...
कोई छोड़ गया था मेरे दामन में...
अजीब बात है..मैं कूड़ा बच्चों की तरह संजोए रखता हूँ...
और लोग बच्चों को भी कूड़ा समझते हैं....
खैर मैं पूरी रात जागा...
अपने सख़्त हाथों से उसे थामे रखा...
कल मैं कूड़ा-दान न रहा...
माँ हो गया...

8 टिप्पणियाँ:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

क्या कहूँ दिलीप जी.............
आपकी कल्पनाशक्ति...आपकी अभिव्यक्ति......बेमिसाल.....

शब्द कम पड़ जाते हैं तारीफ़ के लिए..
उत्कृष्ट रचना.

अनु

vandana gupta ने कहा…

्कितनी गहन सोच है…………एक सशक्त अभिव्यक्ति

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर भावप्रणव अभिव्यक्ति।

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बहुत ही गहन अभिव्यक्ति है..
कई बार न्यूज चैनलों में ऐसी घटना
आती है..

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

संवेदनशीलता गोद के रूप में उतर आती है..

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

where is my comment???
check spam pls.

Ashish ने कहा…

I just happened to pass by your blog and I am awestruck by your writings. Just too good!!

बेनामी ने कहा…

बेमिसाल और शानदार पोस्ट.....हैट्स ऑफ इसके लिए।

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