डरता हूँ गाँव जाने से...
बड़ा उल्टा निज़ाम है वहाँ का..
रास्ते कच्चे, पर मीठे...
रास्ते के दोनो तरफ...
खेत, जैसे हरी चादरें डाल दी हो...
आसमान ने सूखने के लिए...
खेत के परली तरफ, बरसों से बैठा वो कुँआ...
चाँद छुपा कर बैठा है अंदर...
अंदर झाँको तो चाँद में कोई...
अपनी सूरत का भी दिखता है...
चाँदनी बाल्टियों मे भर कर ले जाते हैं लोग उससे...
रात को उछाल देता है चाँद...
और कैच कर लेता है आसमान...
थोड़ा आगे चलो...
तो कुछ पुराने जोगियों सी झोपडियाँ दिखती हैं...
पास एक तालाब भी है...
बूढ़े बुजुर्ग की तरह खटिया पर लेटा रहता है...
बच्चे उसकी गोदी में जाकर खूब उधम मचाते हैं...
नीम, आम के पेड़ जो बैठे रहते हैं सिंहासन पर...
मोटी लाठियाँ लेकर...
हवाएँ हल्की सी गुदगुदी कर दें...
तो खुश होकर...
राजा की तरह सब जवाहरात उतार कर दे दे...
शाम को चौपाल मे लोग नहीं बैठते...
मिठाइयाँ बैठती हैं...
हवा मे चाशनी घुलती है...
अपनेपन, प्यार से दीवारें लीपी जाती हैं...
गाँव मे ज़िंदगी ख़रीदनी नहीं पड़ती...
हाथ बढाओ और मुफ़्त मे तोड़ लो...
पर अब आदत नहीं रही इन सबकी...
न जिंदगी की, न अपनेपन की...
बहुत कुछ भूला हूँ तब जाकर...
शहर के काबिल बन पाया हूँ...
डरता हूँ, कहीं फिर से गँवार न हो जाऊँ...
बस इसीलिए डरता हूँ गाँव जाने से...
8 टिप्पणियाँ:
बहुत सार्थक प्रस्तुति!
बहुत कुछ भूला हूँ तब जाकर...
शहर के काबिल बन पाया हूँ...
डरता हूँ, कहीं फिर से गँवार न हो जाऊँ...
बस इसीलिए डरता हूँ गाँव जाने से...
गहन ...बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ....
बधाई एवम शुभकामनायें..
अब फिर से सच्चाई की , विश्वास की बातें नहीं देखना चाहता - सच से निष्कासित ही सही , जीने तो लगा हूँ . मुखौटे नाप के भले नहीं मेरे पास , घबरायी शक्ल दिख जाती है .... पर कोशिश तो है कि बनावटी हो जाऊँ
राम राम दिलीप भाई....
नौकरी के चक्कर में हमें भी पिछले कई सालो से शहर में रहने का अवसर मिला हुआ है,आपकी ये कविता पढ़ते हुए लगा जैसे कि गाँव में ही पहुँच गया हूँ..... पर आखीर तक आपने सच का ऐसा आइना दिखाया के जैसे कोई सपना खनक और चुभन के साथ बिखर गया हो.....
कुँवर जी,
superbbbb
गाँव में जिंदगी मुफ्त मिलती है.............
बहुत सुन्दर...
अनु
गाँव का सोंधापन तो रह रह कर बुलायेगा ही।
Aansoo Mein Na Dhoodhna Hum Dil Me Utar Jayenge. Bahut Khoob LiKha Aapne.
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