चाँद पर एक दादी रहा करती थी...

Author: दिलीप /


चाँद पर एक दादी रहा करती थी...
चरखा कातती...
कपड़े बनाया करती...
उजले कुर्ते, लाल कमीजें, काले स्वेटर...
बादल जब भी चाँद से गुज़रते...
दादी से ज़रूर मिलते थे...
हर मौसमी त्योहार पर कपड़े जो मिलते थे...
एक बार कई दिनों की मेहनत के बाद...
रात को एक चुनरी बना कर दी थी...
सितारे जड़ कर...
सूरज के लिए भी कई बार कपड़े बनाए...
पर शैतान हर बार उन्हें जला देता...
आग से खेलने की आदत जो थी उसे...
फिर नंगा, शाम को शरमा कर छिप जाता...
फिर एक दिन ग़ज़ब हो गया...
इंसान चाँद पर पहुँचा...
साइंस की बंदूक से दादी को मार दिया...
रात की चुनरी के सितारे टूटने लगे...
बादल अचानक ही फूट फूट कर रो पड़ते...
सूरज अब और जलता है...
पर साइंस की बंदूकें बढ़ रही हैं...
और न जाने कितनी दादियाँ और कितनी कहानियाँ मर रही हैं...
कहते हैं अब आसमान मे सुराख हो गया है...
वहाँ से आग आती है...
काश दादी होती तो पैबंद लगा देती...

12 टिप्पणियाँ:

sonal ने कहा…

इसे कहते है जहां ना पहुंचे रवि वहां कवि ....विज्ञान,मनोविज्ञान और कल्पनाये सब उत्कृष्ट

वाणी गीत ने कहा…

चाँद पर रहने वाली दादी और हमारी दादी में कितनी समानता है !!

बेनामी ने कहा…

adbhut kamal ki nazm hai

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

दादी से कितनी आशायें होती थीं..

vijay kumar sappatti ने कहा…

निशब्द हूँ दोस्त.

सदा ने कहा…

वाह ... बहुत खूब .. लाजवाब लिखा है आपने ...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

वाह, क्या कहने!!!

कवि की कल्पना इतनी संवेदनशील भी हो सकती है!!!...हतप्रभ हूँ.

Himanshu Pandey ने कहा…

खूब लिखा!
कल्पनाएँ इस तरह से खत्म हो गयीं तो सब कुछ यांत्रिक होगा....
कोमल भाव सलामत रहें...यही प्रार्थना है। दादी तो चाहिए ही!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

काश !!!

udaya veer singh ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..

Anupama Tripathi ने कहा…

समय के साथ बदलती तस्वीरें...
सुंदर अभिवयक्ति ..
शुभकामनायें...

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

अद्भुत कल्पनाशक्ति है आपके पास.....

अनु

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