मुझे इंसान न कर, मुझको कैलेंडर कर दे...

Author: दिलीप /


मुझे वो न दे सही, इतना तो मगर कर दे...
मुझे मंज़िल न सही, उसकी बस डगर कर दे...

मेरे दामन मे पके घर हैं, और दिल कच्चे...
मेरी सरकार, अब मुझे भी तू, शहर कर दे...

कोई आए जो, लिखे नाम, हो न फ़र्क मुझे...
बहार में तू मुझे, सूखा सा शजर कर दे...

हर एक चेहरा, उजाले में ज़रा देख तो लूँ...
बस एक दिन के लिए ही सही, सहर कर दे...

टूटी इज़्ज़त, ग़रीब मौत, मुझे ओढ़ सकें...
फटी फटी ही सही, मुझको तू चादर कर दे...

सभी के न दे अगर, कुछ के अश्क़ दे दे मुझे...
मुझे सागर नहीं, तो कम से कम नहर कर दे....

मेरी कीमत कभी गिरे नहीं, बढ़ती ही रहे...
मुझे रुपया नहीं, सरकार की मोहर कर दे...

सभी ये चाहते हैं, रोज़ नया हो जाऊं...
मुझे इंसान न कर, मुझको कैलेंडर कर दे...

8 टिप्पणियाँ:

Anupama Tripathi ने कहा…

पुरज़ोर बेहतरी की चाह ....
सुन्दर भाव ...
शुभकामनायें ...!!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जब कैलेण्डर जिन्दगी को चलाने लगे तो दोनों में कैसा अन्दर..

Manoranjan Manu Shrivastav ने कहा…

talash hai dagar ki to dagar bhi milegi.
manjil khud chal ke aayega , kadam bada ke dekho

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mere blog pe bhi aayega
तरकश

संध्या शर्मा ने कहा…

सभी के न दे अगर, कुछ के अश्क़ दे दे मुझे...
मुझे सागर नहीं, तो कम से कम नहर कर दे....

बहुत खूबसूरत चाह... शुभकामनायें

Shekhar Suman ने कहा…

बहुत खूब.... आपके इस पोस्ट की चर्चा आज 07-6-2012 ब्लॉग बुलेटिन पर प्रकाशित है ... विवाह की सही उम्र क्या और क्यूँ ?? फैसला आपका है.....धन्यवाद.... अपनी राय अवश्य दें...

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

excellent!!!!!!!!!!!!!!!!!!

बेनामी ने कहा…

superbbbbb

Asha Joglekar ने कहा…

मेरी कीमत कभी गिरे नहीं, बढ़ती ही रहे...
मुझे रुपया नहीं, सरकार की मोहर कर दे...

कया बात है दिलीप जी बहुत उम्दा ।

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