इसमें कुछ प्रश्न छिपे हैं जो कभी बचपन में उठा करते थे...फिर आज की एक सोच दिखानी चाही...प्रश्न अभी भी मन में है...इसलिए आपसे उत्तर की आशा रखता हूँ.....
मर्यादा जीवन भर पूजी, बदले मे वनवास मिला...
बड़ी सती थी जिसको कहते जग का तब उपहास मिला...
शिव का आधा अंग बनी, पर बदले मे थी आग मिली...
सत्यमूर्ति बन भटक रहा था, बुझी पुत्र की साँस मिली...
इंद्रिय सारी जीत चुका था, उसको पुत्र वियोग मिला...
विष प्याला उपहार मिला था कृष्ण भक्ति का जोग लिया...
दानवीर, आदर्श सखा, पर छल से था वो वधा गया...
ज्ञान मूर्ति इक संत का शव भी, था शैय्या पर पड़ा रहा...
धर्म हेतु उपदेश दिया पर पूरा वंश विनाश मिला...
हरि के थे जो मात पिता उनको क्यूँ कारावास मिला...
मात पिता का बड़ा भक्त था, बाणों का आघात हुआ...
ऐसे ही ना जाने कितने अच्छे जन का ह्रास हुआ....
थे ऐसे भी जो पाप कर्म की परिभाषा का अर्थ बने...
जो अच्छाई को धूल चटाते, धर्म अंत का गर्त बने...
जो अत्याचार मचाते थे, दूजो की पत्नी लाते थे...
वो ईश के हाथों मरते थे, फिर परम गति को पाते थे...
अब ये बतलाओ सत्य बोल मैं कौन सा सुख पा जाऊँगा...
मैं धर्म राह पे चला अगर,दुख कष्ट सदा ही पाऊँगा...
नाम अमरता नही चाहिए, चयन सुखों का करता हूँ...
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....
45 टिप्पणियाँ:
वाह !
बात तो आपकी सही है और ज्यादा से ज्यादा लोग दूसरा रास्ता अपना भी रहै हैं खाओ पीओ ऐश करो । पर इस मन का इस सद्सदविवेक का क्या करें । जो पिन चुभोता रहता है ।
मन की तकलीफ को उकेरती कविता, असमंजस को उकेरती कविता बढ़िया लगी..
अच्छाई में पाप नहीं,तुम अच्छाई से नहीं डरो.......
बस!! भला सभी का हो जिससे,सदा काम तुम वही करो........
wah, very nice
मर्यादा जीवन भर पूजी, बदले मे वनवास मिला...
बड़ी सती थी जिसको कहते जग का तब उपहास मिला...
very fine lines, really. fantastic.my best wishes.
http://udbhavna.blogspot.com/
jawaab ka intzaar abhi bhi hai...sabhi mitron ka abhaar...
नाम अमरता नही चाहिए, चयन सुखों का करता हूँ...
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....
Aah...Raam ke saath sita holi...uske saath koyi na gaya..draupadi ko bhi antim kshanon me kisibhi Pandav ne mud ke nahi dekha!
वाह, दिलीप जी आपने कितने ही चरित्र और भाव इस कविता के बहाने छू लिये।
rrraAapki kavita hridaysparshi hai.is prakar ki kki kavita ko likhne ke bhav uttpann hona...
aur likh dena... nishichit hi aap bhali-bhati jante ho jeevan me kya uchit ya anuchit hai... please karo jo aatma ko aanandayi lge.
वाह! क्या बात है, बहुत सुन्दर!
अतिसुन्दर।
मैंने कुछ दिन पहले कहीं पढ़ा कि ’यदि शाम तक आपके रास्ते में कोई मुश्किल नहीं आई तो आप तय मानें कि आप आज गलत रास्ते पर चल रहे हैं।’
जो राह सरल है, वो गलत मंजिल की और ले जाती है। सही मंजिल की राह दुरूह ही मिलेगी दोस्त।
अब ये बतलाओ सत्य बोल मैं कौन सा सुख पा जाऊँगा...
सत्य कोने में खड़ा होगा
झूठ का कद उससे बड़ा होगा
अच्छाई से डरने की जरूरत नही है। अच्छाई तो अच्छाई है। देश काल परिस्थिति को ध्यान मे रखते हुए अपना जीवन यापन करना है। बाकी आपकी रचना कल्पना शक्ति के बारे मे कहना ही क्या!
नाम अमरता नही चाहिए, चयन सुखों का करता हूँ...
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....
आज का सारा सामाजिक वातावरण इन मात्र इन दो पंक्तियों में वर्णित कर दिया आपने
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....जो सवाल आपने उठाया है वोह घुर करने लायक है, वर्षों से अछों पे अत्याचार होते रहे और यही जीवन संघर्ष है. अगर अत्याचारों से सब दर जाते तोह आज न राम होते न हुसैन (अ.स) जिनको यजीद ने काटेल किया कर्बला में, उनकी अच्छी की वजह से.
यह दुनिया माया है, इसमें न फंसो और उस दुनिया की फ़िक्र करो
इंद्रिय सारी जीत चुका था, उसको पुत्र वियोग मिला...
विष प्याला उपहार मिला था कृष्ण भक्ति का जोग लिया...
दानवीर, आदर्श सखा, पर छल से था वो वधा गया...
ज्ञान मूर्ति इक संत का शव भी, था शैय्या पर पड़ा रहा...
धर्म हेतु उपदेश दिया पर पूरा वंश विनाश मिला...
हरि के थे जो मात पिता उनको क्यूँ कारावास मिला...
मात पिता का बड़ा भक्त था, बाणों का आघात हुआ...
ऐसे ही ना जाने कितने अच्छे जन का ह्रास हुआ....
बहुत सुन्दर दिलीप जी, इस धरा पर अच्छाई और सच्चाई को यही फल भुगतने पद्त्ते है !
नाम अमरता नही चाहिए, चयन सुखों का करता हूँ...
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ...
वाह!वाह!वाह!
dard ko ukerati rachna..........aaj ke halat mein insaan achcha banne se isi karan darne laga hai.........sundar bhav.
POURANIK KATHAE JHALAK DE HEE DETEE HAI KI AADHIPTY KEE BHOOKH AHAM TUB BHEE RUG RUG ME BASAA THA......
RAJY PRABHUTV KA LOULUPTHA HAI AUR RAHEGA.........
SUB CHOOT JANA HAI ISE YATHARTH KO JANTE BHEE SABHEE SANCHAY ME JUTE HAI SABHEE.YE VIDAMBNA NAHEE TO KYA HAI...?
BAHUT GAHREE SOCH PAEE HAI..... AAJ PROFILE PADA KABHEE BANGALORE AAO TO MILANA...... AASHEESH
बहुत ही सुन्दर लिखा है....अच्छे लोगों को इतना कष्ट झेलते देख,सुन मन में सवाल तो उठते ही हैं..
सटीक उदाहरणों को जे कर की गयी जिज्ञासा....सटीक लेखन
BAHUT KHOOB
blog jagat me aaj tak maine jitani rachnaayen padhi hai us aadhaar par maantaa hun ki blogjagat ke tum sharvashresth kavi ho......
BAHUT BADIYA BAHUT BADIYA KAVITA
दिलीप जी बहुत उम्दा शब्द संयोजन के साथ आपने मन में उठते प्रश्नों को बंधा है कविता के रूप में .. अभिभूत हूँ इस प्रवाह को देख कर
शुभकामनाएं
दिलीप जी ,
इस रचना के जरिये आपने अपने मन में उठते सवालों के जवाब पाने की आकांक्षा करी है.. जबकि आप भी जानते हैं कि जवाब आपके भीतर ही है...
"अब ये बतलाओ सत्य बोल मैं कौन सा सुख पा जाऊँगा...
मैं धर्म राह पे चला अगर,दुख कष्ट सदा ही पाऊँगा..."
सत्य की राह पर चलने से अंतर्मन का सुख मिलता है... जिसका जैसा अंतस होगा वह उसी राह पर चलेगा .. दुखों के डर से सत्य की राह छोडेगा नही.. जिस सुख और दुःख की बात आपने लिखी है वह तो सापेक्ष है....महलों में रहने वाला राजा भी दुखी हो सकता है और कबीर जैसा एक जुलाहा भी आनंदमय ... जिसने अपने सत्व को खोज लिया वह सुखी है ..और जो अपने अहं पोषण और भौतिकता में लिप्त रहा वो दुखी है..दुर्योधन की लिप्सा कभी शांत नहीं हुई और वो मरते दम तक असंतुष्ट रहा ..और वहीँ एकलव्य ने जिस निष्ठा से द्रोणाचार्य को गुरु माना उसी निष्ठा से अंगूठा दे दिया गुरुदक्षिणा में.. और वह परम संतुष्ट रहा ..दूसरे लोगों की नज़रों में भले ही यह अन्याय रहा हो परन्तु आतंरिक रूप से संतुष्ट लोगों को कभी दुःख महसूस नहीं होता .. इसीलिए अच्छाई और बुराई सब अंतर्मन के निर्णय होते हैं..और अंतरात्मा की आवाज़ सुनते हुए कार्य करना ही मानव जीवन का धरम है.. उसके फल जो भी मिले उनसे निर्लिप्त होते हुए..
धरम की राह पर बाहरी तौर पर दुःख भले ही दिखे पर होता सुख का अनुभव ही है... ऐसा मेरा मानना है..
एक छोटी सी कोशिश ..आपने जो जानना चाहा उसे शब्द देने की
शुभकामनाएं
मुदिता
Aapki soch ko aur aapki lekhni ko salaam…….. prakhar hai aapka lekhan, aur uchchkoti ke hain aapke vichar.
इंद्रिय सारी जीत चुका था, उसको पुत्र वियोग मिला...
Yahan par kiski baat ki hai, bata kar kritaarth karein, samajh nahi paaya main.
Pahle mujhe laga indrajeet/meghnaad kintu wah nahi ho sakta… baaki mujhe samajh na aya.
Logon ko aur cheejon ko dekhne ka, mahsoos karne ka evam vyakhyaa karne ka tareeka apna apna hota hai alag alag kaal me.
Matlab,kathan aapka solah aane sahi hai, sach bade kasht sath lata hai, par mera manna ye hai ki
ना अमरत्व, ना सुख की चाह.
न गँगा सा उन्मुक्त प्रवाह.
अंतिम साँस भरे जब ये तन,
आत्मा सके न तनिक कराह.
Itna sundar likhne ke liye fir se sadhuwaad mitra.
Mudita ji in amrit jaise shabdon ka main aabhaari hun...darasal ye kavita maine un sabhi ke baare me soch kar likhi thi jo sach aur achchayi se ghabraate hain...aapke in shabdon ka main rini hun....abhaar...
sir yahan par Dashrath ji ki baat kahi hai..kyunki kahte hain unhone sabhi 10 indriyon ko jeet liya tha....aapke in bahumooly vichaaron aur ant ki panktiyon se dil ko sukoon mila ...abhaar...
मुदिता जी से अक्षरशः सहमत हूँ हैं भी, और आप भी होंगे ही.
ऐसे विचार वही लिख पाता है जिसे उनकी महत्ता का ह्रदय से भान हो.
शुभकामनाएं
दिलीप जी,
मैं जानती हूँ..और यही है एक सार्थक लेखन ...:) ..आप एक सशक्त कवि हैं.. इसीलिए मैंने अपनी टिपण्णी के शुरू में ही लिखा था कि जवाब आपके भीतर है..बस आप किसी और से सुनना चाह रहे हैं :)
शुक्रिया टिपण्णी से सहमत होने के लिए ...
और यह है आज कि दुनिया का सच ..जिसे आपने शब्द दिए
"नाम अमरता नही चाहिए, चयन सुखों का करता हूँ...
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ...."
शुक्रिया
मुदिता
Kya wakai, aisa tha?
Ho sakta hai mujhe is baare me jaankari na ho. Kintu das indriyaan hoti hain?
Apne likha hai to hoti hongi shayad..
main jara kachcha hun is vishay par, aapko adhik pata hoga.
Aur sir kah kar sharminda na karein, dhanyawaad jo aapne shanka ka samadhaan kiya.
likhte rahein.....
are nahi sir aisa kyun keh rahe hain...waise jahan tak mujhe gyaat hai...paanch gyaanendriyan hoti hai aur paanch karmendriyan...aur dason par vijay prapt karne ke karan hi unka naam dashrath pada...mera bhi gyaan adhik nahi hai sir :)
दिलीप! पहली बार एक दबी हुई असहमति व्यक्त करना चाह रहा हूँ...
अब ये बतलाओ सत्य बोल मैं कौन सा सुख पा जाऊँगा...
मैं धर्म राह पे चला अगर,दुख कष्ट सदा ही पाऊँगा...
नाम अमरता नही चाहिए, चयन सुखों का करता हूँ...
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....
अच्छाई, बुराई का चयन किसी भी व्यक्ति का अपना निर्णय है... किसी ने कभी नहीं कहा कि अच्छाई के रास्ते पर बहुत सुख मिलता है...हाँ, ये सभी कहते हैं कि अच्छाई करने से स्वर्ग मिलता है (मैं तो ये भी नहीं मानता)... और बुराई का जीवन सुखमय दिखता है, पर इसपर चलकर नर्क में जाना पड़ता है...
अब दोनों तरफ तो न अच्छाई मिलेगी, न दोनों तरफ बुराई!! अगर हमारे धर्म के वे सारे दृष्टांत जो तुमने दिए, सही हैं तो यह भी मानना होगा कि सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है.
सत्य बस आत्म सुख देता है, आत्म तेज बनता है, आखिरी जीत का निष्कर्ष होता है...........
यह मेरा मानना है, पर यह मानसिक द्वन्द, यह प्रश्न मन को उद्वेलित करता है ....
baat to sahi hai dilip...tumhare xamples bhi tark sangat hain ...tumhari baaten bhi sahi hain ,... par dekho na itne ghor kalyug me ek bura aadmi bhi ravan ka hi putla jalata hai (nida fazli ne kahi thi ye bat kabhi ) ..rachna rachna ke taur pe bahu8t achhi hai ...mann ki kachot bhi dikhati hai .. :)
isi vishay par main bhi likhna chah rahi thi apko padhkar apni hi kuch bhavnao ko shabd milte hue mehsoos hua
aisi rachna padhna saubhagya ji baat hai, bahut shubhkaamnayen
baar baar padh kar bhi man nahi bharta..bahut achcha likha hai dileep
भीड़ से अलग होने के लिए वो होना जरुरी है जो भीड़ में न हो ... अच्छा या बुरा ... फर्क इतना है हर अच्छी चीज की कीमत होती है और बुरी अपने आप मुफ्त मिल जाती है ...
भावों के धरातल पर शब्दों का मोहक नृत्य पहली बार देखा है। आपकी काव्य क्षमता पर अभिभूत हूँ।
DIPKE
क्या बात है जी ,बहुत सुन्दर ,आपके ब्लॉग पर फीडबर्नर सुविधा नहीं दिखी जिससे की आपके लेख सीधे मेल पर मिल सकें ,मेरा मेल - manoj.shiva72@gmail.com
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