अक्सर सोचता हूँ जब भी तारा टूटता है या पलक का बाल टूट कर गिरता है...तो हम कुछ मांगते क्यूँ है...उसी सवाल का जवाब जो सोच पाया वही है ये रचना...पुरानी है...थोड़े संपादन के साथ...
नभ के दामन से कल इक सितारा गिरा...
माँ के आँचल का सूना हुआ फिर सिरा...
माँ को फ़ुर्सत ना थी पर दो आँसू गिरे...
भाई तकते रहे बस खड़े ही खड़े...
वो भी अंतिम सफ़र को बिलखते चला...
इतना रोता रहा की वो खुद बुझ गया...
माँ भी खाली जगह को यूँ तकती रही...
मोती यादों के चुन चुन के रखती रही...
कल बिछड़ने का इक और किस्सा हुआ...
खिलखिलाते हुए दिल का हिस्सा हुआ...
कल थी किस्मत की कैसी यूँ बुद्धि फिरी...
इक पलक टूट कर आँख से कल गिरी...
आँख की आँख मे कुछ नमी आ गयी...
दुख की बदली नयन मन पे थी छा गयी...
पर पलक को बिछड़ना ना मंजूर था...
टिक गया आँख से वो थोड़ी दूर था...
अपनी किस्मत से वो था चिढ़ा और कुढा...
उससे टूटा गिरा, जिससे कबसे जुड़ा...
आँख भी अपने आँसू रही पोंछती...
अपनी किस्मत को जी भर रही कोसती...
दोनो क़िस्सो मे अपनों से बिछड़ा कोई...
बच्चे रोते रहे माँ बिलखती रही...
पर अद्भुत था दोनो ने किस्सा गढ़ा...
आदमीयत की फ़ितरत को कल फिर पढ़ा...
देखा इंसान ये दोनो ही होते हुए...
उन तारों को, पलकों को खोते हुए...
उसकी आँखों मे अद्भुत चमक आ गयी...
स्वार्थ के गीत उसकी नज़र गा गयी...
आग तारे की जैसे ही मद्धम हुई...
बंद इंसानियत की भी पलकें हुई...
जब वो तारा छटक कर कहीं मर गया...
आदमी अपनी फ़ितरत बयान कर गया...
वो चिपकी पलक थी मचलती रही...
उसके मन मे अभी भी थी आशा बची...
पर तभी आदमी की वो उंगली उठी...
फिर पलक को उठा के कहीं चल पड़ी...
वो इंसान की नीयत सितम हो गयी...
सारी उम्मीद उसकी ख़तम हो गयी...
वो पलक को हथेली पे रखे हुए...
मन मे कुछ कुछ ना जाने क्या कहते हुए...
उसके होंठों से फिर एक आँधी चली...
वो पलक रोते रोते कहीं उड़ गयी....
कल वो तारा मरा, वो पलक मर गयी...
ज़िंदगी की व्यथा आँसुओं मे बही...
उनके दुख मे भी जो बस था हंसता रहा...
ऐसे इंसान को दूजों से मतलब कहाँ...
उन दोनो ने जब आख़िरी साँस ली...
उसने अपने लिए तब दुआ माँग ली....
18 टिप्पणियाँ:
कुछ लिखने की संज्ञा में ही नहीं रहा निशब्द हूँ ..............
भावुक कविता दिलीप जी !
nice
गहन भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
सादर वन्दे !
मैंने भी कहीं सुना था की ..
टूटे हुए तारे को देखकर मैंने कहा
आ दिल मांग ले तू भी फरियाद कोई
पर अचानक दिल से आवाज आई
जो खुद टूट रहा है
वो कैसे पूरी करेगा फरियाद कोई !
रत्नेश त्रिपाठी
उसके होंठों से फिर एक आँधी चली...
वो पलक रोते रोते कहीं उड़ गयी....
कल वो तारा मरा, वो पलक मर गयी...
ज़िंदगी की व्यथा आँसुओं मे बही...
Uff! Kaisa dard hai yah!
हर बार की तरह बेहतरीन रचना !
बहुत ही सुन्दर रचना। भाई दिलीप आ गये हैं यहां। आपके दिल की कलम से की तरह हम भी दिल से लगे हुए हैं।
दिलीप, तुम से बात कर बहुत अच्छा लगा! एक बेहद सटीक सोच रखते हो............बहुत जरूरी है आज के दौर में ख़ास कर तुम्हारी उम्र में! अपने देश और समाज के प्रति जो जज्बा तुम्हारे अंदर है वही तुम्हारी हर एक रचना में झलकता है ! मेरा यकीन जानो अगर हमारे देश का हर युवा तुम्हारी जैसी सोच पा जाए तो सच में एक नई क्रांति आ सकती है !
मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ है ! युही लिखते रहो ! आभार !
बहुत संवेदन्शील और भावनाप्रधान रचना---बधाई।
@Ratnesh ji bahut sundar baat kahi...@Shivam ji bahut bahut dhanywaad...meri soch kahan hai ye ye to maa ke diye hue aashirwaad hai...aur mujhse bhi behtar soch wale insaan hain bas unhe ek maarg dena hai...
यह तो उस उल्का पिण्ड और टूटी पलक का दधीचि रूप है जो अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी किसी के मन की कामनाएँ पूरी कर जाती हैं...बेहद सुन्दर विचार!!
s
bahut khoob sir
सुन्दर शब्द भाव की खूबसूरत बुनाई
कल बिछड़ने का इक और किस्सा हुआ...
खिलखिलाते हुए दिल का हिस्सा हुआ...
कल थी किस्मत की कैसी यूँ बुद्धि फिरी...
इक पलक टूट कर आँख से कल गिरी...
...gaharai me jaakar khubsurati ke saath likhi rachna......ati sundar.
दिलीप भाई
हमेशा की तरह शानदार। जानदार। धारधार। जवाब नहीं आपका।
सुन्दर अभिव्यक्ति।
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