शिवम मिश्रा जी ने एक मुहिम शुरू की....आप सभी का सहयोग चाहिए...ये लिंक्स पढ़े....पहली बरसी पर विशेष :- अश्रुपूरित श्रद्धांजलि और मेरी वह मुराद ............बिन मांगे जो पूरी हुयी !! यह एक सार्थक और भावनात्मक प्रयास है....साहित्य के उन स्तंभों को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी यह...चार वरिष्ठ हास्य कवि हमारे बीच नहीं रहे...उनके परिवार को यदि कोई आर्थिक संकट है...तो हमारा धर्म है की हम उनकी यथासंभव सहायता करें...किसी भी माध्यम से...ज्यादा जानकारी शिवम् जी से प्राप्त की जा सकती है...
समाज की विषमताओं की वेदना लिखने वाला कवि और एक हास्य कवि दोनों का एक ही काम है समाज से दुःख दर्द मिटाना...बस इसी विचार को ध्यान में रख कर कुछ लिखने का प्रयास किया है....
मैं जहाँ था तुम वहाँ थे, रास्ते सब एक थे...
मैं भी शायद नेक ही था, तुम भी बिल्कुल नेक थे...
राह से गुज़रे ही थे हम, इक भिखारी छटपटाया...
दोनो ही उस तक गये, फिर दोनो ने उसको सम्हाला...
देख कर हालात सारे, ये हृदय था जल उठा...
मन मे मैं बदलाव का, संकल्प लेकर चल पड़ा...
पर वहाँ बैठे रहे तुम, जाने क्या कहते रहे...
लफ्ज़ जो निकले लबों से गुदगुदी करते रहे...
मैं उधारी दर्द की ले, चल पड़ा कुछ खोजने...
मन मे थी उम्मीद, कोई आए आँसू पोंछ ले...
मूक बधिरों की ही बस्ती, हर जगह मुझको मिली...
दर्द की तस्वीर वो बस, तालियाँ ही पा सकी...
हार कर लौटा वहीं पर, देख मैं विस्मित हुआ...
तुम वहीं बैठे थे तुमको, दे रहा था वो दुआ...
आँसुओं की उस नदी के, द्वीप चौड़े हो गये...
आँसुओं से उस सिनचे मुख पर हँसी तुम बो गये..
फिर तुम्ही तो कह रहे थे, काम तेरा है बड़ा...
जो बदलने तू चला है, वक़्त कुछ लग जाएगा...
कोशिशें करते रहो, बदलाव की उम्मीद ले...
लफ्ज़ गढ़ना इस तरह की खो ना जाना भीड़ मे...
लौटना जब जीत जाओ, मैं यही बैठा मिलूँगा...
लफ्ज़ की इन उंगलियों से गुदगुदी करता रहूँगा..
मैं भी शायद नेक ही था, तुम भी बिल्कुल नेक थे...
राह से गुज़रे ही थे हम, इक भिखारी छटपटाया...
दोनो ही उस तक गये, फिर दोनो ने उसको सम्हाला...
देख कर हालात सारे, ये हृदय था जल उठा...
मन मे मैं बदलाव का, संकल्प लेकर चल पड़ा...
पर वहाँ बैठे रहे तुम, जाने क्या कहते रहे...
लफ्ज़ जो निकले लबों से गुदगुदी करते रहे...
मैं उधारी दर्द की ले, चल पड़ा कुछ खोजने...
मन मे थी उम्मीद, कोई आए आँसू पोंछ ले...
मूक बधिरों की ही बस्ती, हर जगह मुझको मिली...
दर्द की तस्वीर वो बस, तालियाँ ही पा सकी...
हार कर लौटा वहीं पर, देख मैं विस्मित हुआ...
तुम वहीं बैठे थे तुमको, दे रहा था वो दुआ...
आँसुओं की उस नदी के, द्वीप चौड़े हो गये...
आँसुओं से उस सिनचे मुख पर हँसी तुम बो गये..
फिर तुम्ही तो कह रहे थे, काम तेरा है बड़ा...
जो बदलने तू चला है, वक़्त कुछ लग जाएगा...
कोशिशें करते रहो, बदलाव की उम्मीद ले...
लफ्ज़ गढ़ना इस तरह की खो ना जाना भीड़ मे...
लौटना जब जीत जाओ, मैं यही बैठा मिलूँगा...
लफ्ज़ की इन उंगलियों से गुदगुदी करता रहूँगा..
जब तलक संजीवनी इन आँसुओं की ना मिलेगी...
मेरी मीठी गोलिया तब तक हँसी देती रहेंगी...
मेरी मीठी गोलिया तब तक हँसी देती रहेंगी...
26 टिप्पणियाँ:
लौटना जब जीत जाओ, मैं यही बैठा मिलूँगा...
लफ्ज़ की इन उंगलियों से गुदगुदी करता रहूँगा..
जब तलक संजीवनी इन आँसुओं की ना मिलेगी...
मेरी मीठी गोलिया तब तक हँसी देती रहेंगी...
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बहुत सुन्दर भावभरी रचना है!
बधाई!
सादर!
निशब्द !
रत्नेश
शुरुआत बहुत ही अच्छी लगी
भावुक कर देने वाली रचना
नमस्ते,
आपका बलोग पढकर अच्चा लगा । आपके चिट्ठों को इंडलि में शामिल करने से अन्य कयी चिट्ठाकारों के सम्पर्क में आने की सम्भावना ज़्यादा हैं । एक बार इंडलि देखने से आपको भी यकीन हो जायेगा ।
बहुत ही सुन्दर रचना है, लिंक अब देखता हूँ!
मैं उधारी दर्द की ले, चल पड़ा कुछ खोजने...
मन मे थी उम्मीद, कोई आए आँसू पोंछ ले...
मूक बधिरों की ही बस्ती, हर जगह मुझको मिली...
दर्द की तस्वीर वो बस, तालियाँ ही पा सकी
Sundar Bhaav dilip ji.
Bahut hee sundar aur hridayasparshee rachana...
दिलीप, बहुत अच्छी अभिव्यक्ति प्रस्तुत की अपनी कविता के माध्यम सें। शिवम भाई की मुहिम को नमन...
दिलीप भाई शुक्रिया
आज मिसफ़िट पर देखिये आप आ गये है अर्चना जी के स्वरों में आपका गीत देखिये लिन्क ये रहा http://sanskaardhani.blogspot.com/2010/06/blog-post_4563.html
लौटना जब जीत जाओ, मैं यही बैठा मिलूँगा...
लफ्ज़ की इन उंगलियों से गुदगुदी करता रहूँगा..
जब तलक संजीवनी इन आँसुओं की ना मिलेगी...
मेरी मीठी गोलिया तब तक हँसी देती रहेंगी
जबरदस्त
लौटना जब जीत जाओ, मैं यही बैठा मिलूँगा...
लफ्ज़ की इन उंगलियों से गुदगुदी करता रहूँगा..
जब तलक संजीवनी इन आँसुओं की ना मिलेगी...
मेरी मीठी गोलिया तब तक हँसी देती रहेंगी...
Aise geet nishabd kar dete hain...!
jeevan me jaane kitne kasht dekh chuka hota hoga..tab jakar kahin ek maskhara paida hota hoga...doosron ko hansana koi mammoli baat nahi hai...sabhi hasya kaviyon ko mera sadar naman...
लाजबाब
यूं ही चलती रहे ये कलम दिलीप..
भावभीनी रचना....शिवम की मुहिम को जारी रखने का साधुवाद!
हृदयस्पर्शी रचना..
har shabd ko sunder moti sa roop dekar ek bahut urjawan rachna ka nirman hua he.
समाज की विषमताओं की वेदना लिखने वाला कवि और एक हास्य कवि दोनों का एक ही काम है समाज से दुःख दर्द मिटाना..
Aapki baat se sahmat hoon.
rachna prabhv chodti ai.
बहुत ही सुन्दर रचना है.
लौटना जब जीत जाओ, मैं यही बैठा मिलूँगा...
लफ्ज़ की इन उंगलियों से गुदगुदी करता रहूँगा..
जब तलक संजीवनी इन आँसुओं की ना मिलेगी...
मेरी मीठी गोलिया तब तक हँसी देती रहेंगी...बहुत सुन्दर भावभरी रचना
मैं उधारी दर्द की ले, चल पड़ा कुछ खोजने...
मन मे थी उम्मीद, कोई आए आँसू पोंछ ले...
मूक बधिरों की ही बस्ती, हर जगह मुझको मिली...
दर्द की तस्वीर वो बस, तालियाँ ही पा सकी...
aapka har shabd nihshabd kardeta hai
फिर तुम्ही तो कह रहे थे, काम तेरा है बड़ा...
जो बदलने तू चला है, वक़्त कुछ लग जाएगा...
.... अदभुत भाव !!!
bahut abhaar jo aapne Shivam ji ki is muhim me mere is chhote se prayas ko pasand kiya...
behtreen varnan
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
मेरे भाई दिलीप, आज सच में लगा कि एक भाई के साथ एक भाई खड़ा है कंधे से कंधा मिला कर ! मेरी मुहीम को अपनी आवाज़ देने का बहुत बहुत आभार !
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