भोपाल त्रासदी का ये चित्र देखा और मन विचलित हो गया...इससे ही प्रेरित होकर ये रचना लिखी...
थी कभी छत पर मेरे कुछ धूप आकर तैरती...
थी कभी छत पर मेरे कुछ धूप आकर तैरती...
और नीचे छाँव भी थी सुस्त थोड़ी सी थकी...
छाँव के कालीन पर नन्हा खिलौना रेंगता...
कुछ उछलती कूदती साँसों को मुझपे फेंकता...
हाँ वो बचपन था कभी कुछ झूमता कुछ डोलता...
आँख मून्दे मुँह सटाये मुझसे क्या क्या बोलता....
फिर तभी आवाज़ कोई खनखनाते प्यार की...
कुछ तो ख़ाले धूप मे क्यूँ खेलता तू हर घड़ी...
फिर मेरी उंगली पे चादर थी कई लटका गयी...
प्यार ममता आज फिर नीयत मेरी भटका गयी...
फिर तभी वो घूमते पहिए वहाँ आकर रुके...
चूमने मुन्ने को दो लब थे ऊँचाई से झुके...
फिर धरी थी हाथ उसके चमचमाती कुछ खुशी...
फिर उतरकर लाड़ ने मासूमियत थी गोद ली...
फिर किवाडो मे छिपे जा प्यार के पंछी सभी...
मैने भी थोडा उचक्कर एक ठंडी साँस ली...
पेड़ था पीपल का इक मैं जाने कबसे था खड़ा...
पर बगल के लाल घर ने था सदा बाबा कहा...
हाँ बहू ही थी मेरी वो नित्य आकर पूजती...
बंधनों मे बाँध कर कुछ मांगती कुछ पूछती...
रात अपनी डाल से सहला रहा था छत वही...
बह रही ममता हृदय से देख कुछ पाया नही...
देखते ही देखते था इक धुआँ सा छा गया...
आज फिर हैवान कोई रंग अपना पा गया...
देखते ही देखते सब सत्य यादें बन गये...
वो हँसी खाँसी मे बदली और सन्नाटे हुए....
लाल सूरज तो उगा पर चादरें फीकी हुई...
सामने थी प्यार की तस्वीर वो बिखरी हुई....
छाँव के कालीन के नीचे ही वो रखे गये...
याद मे उनकी उन्ही पे पात सब गिरते रहे...
आज मैं बस खोखला सा एक मृत कंकाल हूँ...
याद का धन हूँ संजोए फिर भी मैं कंगाल हूँ...
धूप ने भी छाँव को अब घर निकाला दे दिया...
कल सुना हैवान ने भी कुछ निराला कह दिया...
वो हज़ारों ख्वाब जो बिखरे यही पर धूल मे...
कल हज़ारों मे ही सारे मैय्यतों पर बिक गये...
इंसाफ़ की मूरत ने पट्टी और कस कर बाँध ली...
राजनेता गीदड़ों ने भी है चुप्पी साध ली....
आज फिर इंसान की कीमत कहीं पर लग गयी...
और जाने आँख कितनी, राह तक तक थक गयी...
लाश को क्या बेचते हो, याद ये बेचो ज़रा...
इस ज़मीन के खोल अंदर झाँक कर देखो ज़रा...
हो भले कुछ हड्डियाँ या राख हो अंदर बची...
ढूँढती इंसाफ़ को वो आँख अब भी है खुली...
20 टिप्पणियाँ:
काश आदमखोर कांग्रेस के नेता अपने नेताओं की संवेदनहीनता के विरूद्ध अन्दोलन चालयें व पार्टी को देशविरोधी परिवार की गुलामी से मुक्त कर इनसाफ का रास्ता साफ करें।
दिल को छू लेने वाली कबितान
शब्द थे सच्चे, सच्चा लेखक.. भाव सभी तो सच्चे थे..
सच्ची ही तो बात कही थी
फिर झूठ कहानी कैसे हुई???
तुम वर्षों पहले छोड़ गए जो
जो मैं अबतक थामे बैठा हूँ
वो झूठ निशानी कैसे हुई???
Aankh to insaaf kee band hai..
Hamesha aapki rachanayen behad sanjeeda hotin hain...qalamki taqat hai,jo,alfaaz dil me utaar deti hai..
बहुत सुन्दर दिलीप भाई। हम आज या कल ही नटारी वाला न्रिशन्स हत्या काण्ड की याद कर रहे थे।
बस एक शब्द ............लाजवाब
आईये जानें .... क्या हम मन के गुलाम हैं!
राजनेताओं को किन्नर कह कर किन्नरों की बेइज्जती क्यों करते हो, दिलीप भाई? प्रस्तुति बेहद सुन्दर! बधाई।
...बहुत खूब!!!
अंतरात्मा को अन्दर तक हिला दिया था इस तस्वीर ने ..शब्द आपने दे दिए ..
किन्नर पर आपकी पिछली रचना पसंद आई थी .. पर आज यहाँ ये शब्द कुछ खटक गया ...
bahut bahut dhanywaad mitron bhopaal trasdi par vishesh likhi ye rachna...
बहुत बढ़िया...अपने भावों को आपने जो शब्द दिये हैं जैसे हर भारतीय की सोच को अभिव्यक्ति दे दी है.
दिलीप जी, बहुत मर्मस्पर्शी चित्र और कविता।
खून बहुत खौलता है इस देश के रहनुमाओं पर। अपने हितों के लिये किस दर्जे तक गिर सकते हैं लोग।
dilip bhaai ,,,,chhote bhai ka pranaam swekaare ....kisi jaruri kaam se kasmeer jana pad raha hai ,,,,aap sab se door jaane ka dukh hai ....par jana jaroori hai ,,,,aap apani kalam aur sundar vicharon se blogjagat ko alnkrit karte rahe ....agar sahi salamat lauta to jald hi bhent hogi ....filhaal samay ki kami ke kaaran itna hi kah sakta hoon ,,,,alvida dost
लाश को क्या बेचते हो, याद ये बेचो ज़रा...
इस ज़मीन के खोल अंदर झाँक कर देखो ज़रा...
हो भले कुछ हड्डियाँ या रख हो अंदर बची...
ढूँढती इंसाफ़ को वो आँख अब भी है खुली...
मगर इन्साफ फिर भी नही मिला। बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है शुभकामनायें
लाश को क्या बेचते हो, याद ये बेचो ज़रा...
इस ज़मीन के खोल अंदर झाँक कर देखो ज़रा...
हो भले कुछ हड्डियाँ या रख हो अंदर बची...
ढूँढती इंसाफ़ को वो आँख अब भी है खुली...
बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति।
वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियां ऐसी ही छटपटाहट भरती जा रही है हर संवेदशील इंसान के मन में ...
यह लावा फूटेगा एक दिन !!
फोटो देख कर अजीब सा मन हो उठता है आपने अपनी कलम के जरिये हकीकत बयान कर दी है ।इससे अच्छा इस त्रासदी पर क्या लिखा जा सकता है पर हृदयहीन लोगो का इससे क्या वास्ता ।
Dilip bhai Kavita hameshaa ki tarah hathodaa maartee hai...aakhree teen lines mein ' ko ' kee jagah 'ke' hai tathaa 'raakh' kee jagah 'rakh' hai ...unhe kripya theek kar lein
yogesh ji bahut bahut dhanywaad is sudhaar ke liye...aur wo upar ke hi rakha tha wo jameen ka khol kehna chahta tha
इंसाफ़ की मूरत ने पट्टी और कस कर बाँध ली...राजनेता गीदड़ों ने भी है चुप्पी साध ली....आज फिर इंसान की कीमत कहीं पर लग गयी...और जाने आँख कितनी, राह तक तक थक गयी...
Ishee baat kaa to afsos hai !
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