बात है कुछ रोज़ पहले की.....

Author: दिलीप /


बात है कुछ रोज़ पहले की, टेढ़ी मेढी पगडंदियों से गुज़र रहा था...
भोर होने वाली थी, पूरब से सूरज का मद्धम प्रकाश बिखर रहा था...
पतझड़ के सताए, एक बूढ़े बरगद के नीचे, अचानक ठिठक गया...
उन सूखी, बढ़ती उम्र की निशानी, दाढियों मे, मेरा मन अटक गया...

उस विशालकाय खंडहर मे, मजबूत ईंट सा दिख रहा था एक ही पत्ता...
सूर्यदेव की कुछ कृपा से देखा, तो पत्ता नही वहाँ बैठा था एक तोता...
मैने पूछा, पत्ते तक इसे छोड़ गये तो तू किस बंधन से बँधा है...
क्यूँ किसी निर्मोही, त्यागी सन्यासी, साधक सा, बूढ़ी डालो पे सधा है...

उसकी छोटी सी आँखों से, एक मोती सरक कर, मेरे काँधे पे टपका...
फिर अपने पँखो से, गम को संहालते, अपने पंखों को ज़ोर से झटका...
वो रुँधे गले से बोला, कल उसने इंसानी ज़िंदगी की एक नयी किताब पढ़ी...
मजबूरी के भूतिया पाँव की छाप, किसी की आँखों से निकल, इस दिल पे पड़ी...

कल यही बैठा, कोई इस बंजर धरती को प्यासी आँखों से निहार रहा था...
अपनी पालतू मायूसी का करकट, वो उम्मीद की झाड़ू से बुहार रहा था..
ऊपर आसमान की सूनी गोद, उसके कमजोर हो चुके मन को खटक रही थी...
उसकी भूख अब पेट कुछ उपर निकल, आँखों के दरवाज़े से लटक रही थी...

जब उसने नज़र उठा के मुझे देखा, तो जाने क्यूँ बस देखता ही रह गया...
शायद बहुत दिन बाद, कुछ हरा देखा था, आँखें सेंकता ही रह गया...
मुझे घूरते घूरते, जाने कौन से सपनों की दुनिया मे वो खो गया...
बिजली सी चमकी उसकी कुछ साँसें, फिर वो अचानक गहरी नींद सो गया...

वो सूखे से अपनी बरसो की दौड़ मे, ना चाहकर भी आगे निकल गया था...
उसकी उन सूनी आँखों का इंतेज़ार, उसकी मौत के साथ ही ठहर गया था...
उसके जाने के बाद बहुत ज़ोर की बारिश हुई, लेकिन बस मेरी आँखों से...
एक बार उपर की ओर देखा फिर गया उसके करीब, मैं उतर इन शाखों से...

साँस थमी थी, पर नही थमा था,उसका उम्मीदों आशाओं का व्यापार...
उसकी आँखें अब भी खुली थी, अभी भी ख़त्म नही हुआ था, उसका इंतेज़ार...
पर मुझे संतोष था, मेरे रंग से, उसके होंठों पे आई थी मुस्कान...
वो तो मजबूरी, भूख, ग़रीबी से दम तोड़ चुका, था एक और किसान...

किसी बड़े आदमी को कहते सुना था, भारत किसानों, गावों मे बसता है...
पर यहाँ तो मैने किसान को बस रोते देखा जाने वो कब हंसता है...
उस तोते ने उतना कहा, और फिर पंखों को तान दूर गगन मे उड़ गया...
मैं भी कुछ सोचते, रोज़ की भागदौड़ भरी ज़िंदगी की ओर मुड़ गया....

28 टिप्पणियाँ:

sonal ने कहा…

bahut khoob ...

aarya ने कहा…

इस जीवंत रचना के लिए मुझे भी झेलिये ...

जी हाँ असली भारत गाँव में बसता है
क्या कहा आपने ! वहाँ किसान रहता है !
आप भूल कर रहे हैं,
किसान तो मतपेटीओ में रहता है
गाँव में तो बस वोट रहता है,
और जहाँ ओट रहता है
वहाँ किसान नहीं नेता रहता है,
तो शहर में कौन रहता है
अरे बेवकूफ शहर में भी नेता ही रहता है
क्या बात करते हैं! तो फिर किसान कहा रहता है
अरे तुम भूल गए!
किसान तो मतपेटीओ में रहता है,
और अगर किसान का गाँव भारत है
तो भारत कहाँ रहता है ?.........................
रत्नेश त्रिपाठी

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

अच्छी रचना

Jandunia ने कहा…

सुंदर रचना

शिवम् मिश्रा ने कहा…

"किसी बड़े आदमी को कहते सुना था, भारत किसानों, गावों मे बसता है...
पर यहाँ तो मैने किसान को बस रोते देखा जाने वो कब हंसता है...
उस तोते ने उतना कहा, और फिर पंखों को तान दूर गगन मे उड़ गया...
मैं भी कुछ सोचते, रोज़ की भागदौड़ भरी ज़िंदगी की ओर मुड़ गया...."


बहुत खूब महाराज | जय हो |

Dev K Jha ने कहा…

क्या बात है दिलीप भाई। एकदम समा बांध दिये हो...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

मार्मिक ....अब कितनी प्रशंसा करूँ? हर बार बहुत अच्छा और सटीक लिखते हो....

सूर्यकान्त गुप्ता ने कहा…

थोड़े अन्तराल के बाद पढ्ने को मिली आपकी कविता। सुन्दर विषय और कविता तो कविता है लोगों मे जाग्रिति लाये उसके लिये यह सविता है। भावनाओं को प्रवाहित करे यह ऐसी सरिता है।

पंकज मिश्रा ने कहा…

kya kahne. vah.
http://udbhavna.blogspot.com/

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत जबरदस्त!!


उसकी भूख अब पेट कुछ उपर निकल, आँखों के दरवाज़े से लटक रही थी...


-ओह!

M VERMA ने कहा…

उसके जाने के बाद बहुत ज़ोर की बारिश हुई, लेकिन बस मेरी आँखों से...
उम्दा रचना

Renu goel ने कहा…

भाव शब्दों से निकल कर सीधे आँखों में उतर आये हैं ,... किसान और वो भी भारत का .. मजबूरी का दूसरा नाम है ...

कडुवासच ने कहा…

...बहुत प्रभावशा््ली रचना!!!

nilesh mathur ने कहा…

बहुत ही सुन्दर और संवेदनशील, बेहतरीन!

abhi ने कहा…

wah ji ... :)

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

sachhi baaten kyun karte ho bhai .. bahut achhi rachna hai .. :)

kshama ने कहा…

Ab Bharat wahan rahta nahi,marta hai..! Jhakjhor diya is rachna ne...

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

और आपका अंदाजे बयाँ हमें लाजवाब कर गया।
--------
करे कोई, भरे कोई?
हाजिर है एकदम हलवा पहेली।

राजकुमार सोनी ने कहा…

जीयो मेरे दोस्त। यार जो कुछ भी हो तुम लिखते बहुत प्रवाह में हो और अपनी बात मनवा लेते हो।

arvind ने कहा…

bahut acchhi rachnaa.

Parul kanani ने कहा…

wah dilip ji ek ke baad ek nayab rachna.. :)

vandana gupta ने कहा…

kisaanon ke dard ko bakhubi ukera hai..........bahut hi samvedansheel rachna.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

जब उसने नज़र उठा के मुझे देखा, तो जाने क्यूँ बस देखता ही रह गया...
शायद बहुत दिन बाद, कुछ हरा देखा था, आँखें सेंकता ही रह गया...
मुझे घूरते घूरते, जाने कौन से सपनों की दुनिया मे वो खो गया...
बिजली सी चमकी उसकी कुछ साँसें, फिर वो अचानक गहरी नींद सो गया...

बहुत सुन्दर !

दिगम्बर नासवा ने कहा…

किसी बड़े आदमी को कहते सुना था, भारत किसानों, गावों मे बसता है...
पर यहाँ तो मैने किसान को बस रोते देखा जाने वो कब हंसता है..

तोते के माध्यम से सच कह दिया आपने .... बहुत संवेदनशील रचना है ...

shikha varshney ने कहा…

एक सशक्त रचना ..

मीनाक्षी ने कहा…

हर रचना चिंतन करने को बाध्य करती है...

Yogesh Sharma ने कहा…

ati sundar....lekin gaayab kahan ho gaye the bhai

rashmi ravija ने कहा…

बहुत ही प्रवाहपूर्ण रचना...कुछ सोचने को विवश करती हुई..

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