एक पुरानी रचना थोड़े संपादन के साथ फिर से पेश कर रहा हूँ शायद आप सभी को पसंद आये....
थके हुए बल्ब की मद्धम रोशनी मे...
किसी के लिए चमक का एहसास हूँ...
देसी शराब की एक देसी दुकान मे...
कोने मे पड़ा स्टील का गिलास हूँ...
जाने रोज़ कौन कौन चले आते हैं...
फिर होंठों से मैला कर चले जाते हैं...
फिर किसी छोटू के हाथ बढ़ते हैं...
मुझे एक चुल्लू पानी से चमकाते हैं...
मेरी एक काँच की बहेन भी थी...
ग़रीब था, तो छोड़कर चली गयी...
अब किसी बड़े से विदेशी क्लब मे...
काँच की अलमारियों मे है सजी...
अभी ठीक से जवान भी नही हुई...
पर सैकड़ों होंठों पे रोज़ सजती है...
चमकती रोशनियों के उजाले मे...
चमकती है और बहुत हँसती है...
शायद कमाल है पीने वालों का...
अभी तक उसकी इज़्ज़त बची है...
मेरे चमकते स्टील की चमक तो...
न जाने कबकी कहीं खो चुकी है...
उसके मन मे तो गहराई भी नही...
फिर भी उसपे फलों की सजावट है...
एक मैं, इतना गहरा हूँ फिर भी...
बाहर बस पसीने की लिखावट है...
पर गम नही इस बात का क्यूंकी...
जो यहाँ रोज़ बैठा मैं देखता हूँ...
आँसू, दुख, तकलीफ़ सब बातें...
अनुभव की तरह उसे सहेजता हूँ...
और अब अच्छे से समझता हूँ...
गहराई की ज़रूरत तो बस यहाँ है...
अरे, उन क्लब वालों की ज़िंदगी मे...
भूलने को इतना गम ही कहाँ है...
18 टिप्पणियाँ:
sundar prastuti.........gahri soch.
और अब अच्छे से समझता हूँ...
गहराई की ज़रूरत तो बस यहाँ है...
अरे, उन क्लब वालों की ज़िंदगी मे...
भूलने को इतना गम ही कहाँ है......bahut acchi rachna.
वाह!कहा से कहा पहुंचा देते हो भाई आप बात को....बहुत बढ़िया के अलावा भी कुछ होता है क्या.....?जो हो तो वही समझे हमारी ओर से तो.....वैसे स्टील का ग्लास......बढ़िया रूपक बनाया जी...
कुंवर जी,
दिलीप, कौन सम्मान पाने योग्य है और कौन नहीं .............यह तो बड़ा ही विवादित मुद्दा है सो इसको तो जाने देते है ! यह जरूर सत्य है कि तुम्हारे अन्दर जो आग दहक रही है वही तुम्हारी रचनायो में भी नज़र आती है | आज कल जो भी हमारे आस पास हो रहा है .......हम सब उस से दुखी है पर कितने है जो अपने मन की बातो को औरो तक पहुचाते है वह भी इतने जोशीले अंदाज़ से !?
अपने अन्दर की आग को बुझने मत देना और युही अपने साथ साथ हम सब को भी जागते रहना | मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ है !
आज की रचना भी बेहद उम्दा है ...........बधाइयाँ !
पहले भी पढ़ी थी ..आज फिर से पढ़ा तो फिर ,,, अच्छी लगी ,,पर भाई इस तरह की पीने-पिलाने वाली रचनाएँ मत लाया करो :) ..पहले ही बड़ी कोशिश करके कुछ कम कर दी ....कहीं फिर से .........?
सजीव रचना है ,बिलकुल अलग
ऐसे ही लिखते रहे
शुभकामनाये
वाह, स्टील के गिलास की मार्मिक व्यथा !
बढ़िया दिलीप जी ,
स्टील के गिलास की व्यथा कथा...............अनूठी रचना। अच्छी लगी।
स्टील के ग्लास के माध्यम से एक करारी चोट की है....अच्छी रचना
दअभी ठीक से जवान भी नही हुई...
पर सैकड़ों होंठों पे रोज़ सजती है...
बहुत सुन्दर ढंग से आपने अंतर्द्वन्द को व्यक्त किया है
nice presentation
kya baat hai dileep bhai.
andar ki baat gehere paith.
likhte rahen..!!
बेहतरीन सोच, स्याही पाकर ब्लॉग पर उभर आई है। आपके ब्लॉग पर आता रहूंगा।
वाह वाह क्या सोच है! वैसे आजकल ये देसी और विदेसी स्वास्थ्य केन्द्र बढ्ते जा रहे हैं। यहां की दवायें दारू की तरह पी जा रही है। और रही बात स्टील के गिलास की तो भाइ दिलीप गम सहने के लिये दिल का फ़ौलादी होना जरूरी है काँच जल्दी टूट न जायेगा। मगर दाद देते है हम आपकी कल्पना शक्ति की। आभार्।
ek nirala jeewan darshan hai , Dilip bhai. Sadhuvad.
रचना में नए बिम्ब और भाव दिखे..
sadhu..saadhu... aur kahun to kya kahun
bahut hi gahri soch ,
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