सेठ जी चादर ताने सोए पड़े थे...
लक्ष्मी जी के स्वप्न मे खोए पड़े थे...
तभी उनका बेटा झूमते हुए आया...
और सेठ जी को हिला हिला के जगाया...
फिर बोला उठो मुझे कुछ बताना है...
कल मुझे भी अपना जन्मदिन मनाना है...
लक्ष्मी जी पे हमला सेठ जी कैसे सहते...
पर इससे पहले की मना करने के लिए कुछ कहते...
तभी बेटे ने कुछ ऐसी कथा सुनाई...
सेठ जी की बुद्धि भी थी चकराई...
'स्कूल का माली कल क्लास मे आया था...
बच्चे के जन्मदिन पे पूरा स्कूल बुलाया था...
शाम को घर भी खूब सजाया था...
हलुआ, पूरी, खीर, जाने क्या क्या खिलाया था...
जो भी लौटे उसके चेहरे खिले थे...
सब बच्चों को वहाँ खिलौने भी मिले थे'...
जाने ये भगवान की कैसी थी माया..
सेठ जी ने सोचा पर समझ नही आया...
वैसे भी जब ग़रीब पेट भर खाने लगते है...
अमीर की छाती पे साँप लोटने लगते हैं...
और फिर ग़रीब है ग़रीबी बघारे...
हमारे बच्चों को तो ऐसे ना बिगाड़े...
बस यही सोच, सेठ जी उठ गये...
माली के घर की ओर चल पड़े....
उस टूटे घर पे अब भी बत्तियाँ सजी थी...
कल रात की रौनक अब भी बची थी...
सेठ जी को देख माली हर्षाया...
बड़े आदर से उन्हे बाहर कुर्सी पे बिठाया...
फिर अपनी पत्नी को आवाज़ दे चाय मंगाई...
फिर सेठ जी के लिए खीर भी बनवाई...
सेठ जी का तो दिल ही बैठा जा रहा था...
वो चमक देख, मुँह ऐंठा जा रहा था...
सेठ जी फिर खीर मे मेवे देख नही पाए...
पूछते पूछते बड़ा सकूचाए...
आज कल घर मे रौनक बड़ी है...
क्या कोई लॉटरी निकल पड़ी है...
माली अचानक खामोश हो गया...
पल भर मे सारा जोश खो गया...
बोला बेटा जन्मदिन मनाने की ज़िद कर रहा था...
मैं भी जाने कबसे मना कर रहा था...
ग़रीब हैं हम, उससे कितनी बार कहा था...
पर बेटा था कि मान ही नही रहा था...
फिर जब बच्चे के आँसू नही देख पाया...
कल गया और अपनी किडनी बेच आया...
आप क्यूँ घबराते हैं, कुछ दिन की बात है...
है ये पल भर की चाँदनी, कल फिर रात है...
28 टिप्पणियाँ:
माली के लिये आखिर अपने जिगर का तुकडा था। सेठ जी तो लक्ष्मी जी को घर से बाहर न भेजने पे अडा था। हाय पैसा………बहुत ही सुन्दर। नाम हमारे ब्लोग का है उमड़त घुमडत और विचारो का मन्थन दिलीप भाई के पास। वाकई दिलीप बहुत अच्छा लगता है।
उफ़ पीड़ा की ऐसी अभिव्यक्ति ,असमानता का एसा वर्णन आँखों में पानी लाने के लिए काफी है
दिलीप ,
तुम तो गज़ब ही करते हो हमेशा लिखने में....
इस रचना को पढ़ कर तो बस आह ही निकल गयी....बहुत मार्मिक रचना...
आपके सृजन का वही जज्बा ...सुंदर।
atyant peedadayi ... gazab ka chitran, bahut hi maarmik
बहुत ही उम्दा, बेहतरीन
आभार
कविताओं को फाइनल टच देने का तुम्हारा अंदाज़ निराला है दिलीप.. बढ़िया..
बहुत मार्मिक और सुन्दर रचना!
निशब्द हूँ मित्र ,,प्रतिदिन इस प्रकार के विचारो को शब्दों में उतारना ,,,अद्दभुत है !!! बहुत चिंतन योग्य,,, धनाड्य की प्रवृति और गरीब की परिस्तिथि का उत्तम मिश्रण !!! जन्मदिन के लिए किडनी बेचना कुछ अतिशयोक्ति सा है ...बच्चे की बीमारी के लिए बिकती तो ठीक था ...परन्तु मैं समझ सकता हूँ ..संतान की हठ के सामने माँ-बाप को झुकना पड़ता है . जो भी हो आज आपसे कुछ सीखा ,,, जल्द ही उसे प्रयोग में लाऊंगा ...धन्यवाद
अवाक हूँ मैं...
uffffffffffff...I am shocked.
क्रोध पर नियंत्रण स्वभाविक व्यवहार से ही संभव है जो साधना से कम नहीं है।
आइये क्रोध को शांत करने का उपाय अपनायें !
....सुन्दर रचना !!!
KUCH JYADA HI DUKHDAYIIIIIIIIIII
aakhir ki do lino ne dil chhoo liya
जबरदस्त, बहुत ही बढिया
पैसे के मोह और आज के हालात की सच्चाई दर्शाती सुन्दर रचना
प्रणाम स्वीकार करें
उफ़.........आखिर मे आकर तो जान ही निकाल दी.........आज के सत्य से रु-ब-रु कराती सम्वेदनशील रचना.
तुम बाज़ क्यों नहीं आते हो रुलाने से ...........ज़िन्दगी वैसे भी बहुत कडवी होती है ऊपर से तुम आइना दिखाते हो................हम सब को यु रुला रुला कर तुम यह कैसा सुख पाते हो ? क्यों नहीं लिखते तुम औरो की तरह कि सब ठीक चल रहा है .................हर कोई हंस रहा है.............नहीं है कोई गम किसी को..........हर किसी का पेट भरा है ............. क्यों सच लिखते हो ?? बदले में क्या पा जाते हो ...............??
हो कोई जवाब तो जरूर बतलाना ...................क्यों हर बार रुला जाते हो ?? तुम यह कैसा सुख पाते हो ??
यह देख लेना :- http://burabhala.blogspot.com/2010/06/blog-post_02.html
फिर जब बच्चे के आँसू नही देख पाया...
कल गया और अपनी किडनी बेच आया...
आप क्यूँ घबराते हैं, कुछ दिन की बात है...
है ये पल भर की चाँदनी, कल फिर रात है...
Waah, Behtareen aur sochne ko majboor kartee rachnaa .
jabardast saab,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, bus aur kuch kehne ki mudra main hi nahi hun
dilip ji bahut hi touchy likha aapne..
मन को छू गयी आपकी रचना...
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क्या आप जवान रहना चाहते हैं?
ढ़ाक कहो टेसू कहो या फिर कहो पलाश...
dilip...yaar ..jane do ...kuch nahi kahna ...shivam mishra ji ki baat ko hi main bhi kehna chahta hun .....
kaash main kabhi tumhare jaisa soch paaun...iske lie jo nazar chahiye kaash mujhe bhi mil jaye kaheen se..dukh dard sirf dekhun na ..mehsoos kar sakun....likhte raho..padhta rahunga
aur han bura mat manna ..."aap " nahi kehta tumhe...do din chhote ho mujhse... :)...thoda muskurana zaroori tha is post par bhi ..
"फिर जब बच्चे के आँसू नही देख पाया...
कल गया और अपनी किडनी बेच आया..."
समस्या को समाधान दिखाते हो आप तो,
विधाता तो मजबूर है कुछ ऐसा ही विधान
दिखाते हो आप तो...
क्यों गरीब चादर से बहार पैर फैलाए..
उन्हें हैसियत से बहार के अरमान दिखाते हो आप तो..
दिलीप भाई रुलाते हो आप तो...
वाह क्या बात है
आपकी रचनाएँ बेमिसाल
दर्द और भाव ....
मार्मिक ... ग़रीबी पर बस नही .... संवेदनशील चित्र खैंचा है ....
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