आओ दिन के फ़र्श पे दोनों रात बिछाते हैं...
चाँद अंगीठी जला के ताज़ी नज़्म पकाते हैं...
थोड़ा सा एहसास गूँथ लो, कल ही पिसवाया हैं...
ग़म के फिर चकले बेलन पर उसे घुमाते हैं...
पिछली बार की जो ग़ज़लें बाँधी थी मैने ख़त में...
चलो उसे चखने से पहले कुछ गर्माते हैं...
खट्टी बादल की चटनी या तारों की शक्कर से...
तोड़ तोड़ कर एक निवाला चाव से खाते हैं...
वो जो ऊपर रात की रानी उड़ती रहती है...
चलो उसे भी प्याले मे भर ओस पिलाते हैं...
ज़रा ओस फिर हम पी लें और थोड़ी मदहोशी में...
चलो ओढ़ कर हवा सुहानी हम सो जाते हैं...
आओ दिन की फ़र्श पे दोनों रात बिछाते हैं...
चाँद अंगीठी जला के ताज़ी नज़्म पकाते हैं...
6 टिप्पणियाँ:
आओ दिन की फ़र्श पे दोनों रात बिछाते हैं.' दिन की ' जगह दिन के होता है ...बहुत सुन्दर गीत रचा है ..बधाई ...
Shukriya Sharda ji galti sudhar li gayi hai :)
रचनाकारी तेल उबालें, पूड़ी भी तल लाते हैं
बहुत खूब
वाह ....वाह.....वाह........अब लफ्ज़ नहीं है और.... वाह
वाह!!! बहुत बढ़िया | आनंदमय | आभार
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
अच्छी गज़ल पकी है ...बहुत खूब!
एक टिप्पणी भेजें