मेरे कानों में बाँध दो झनकते सन्नाटे...
मेरे होंठों पे सुर्ख लाल सी चीखें रख दो...
मेरे माथे पे गोल चोट दो, कि खून रिसे...
मेरे हाथों मे गोल खनखनाती हथकड़ियाँ...
मेरे सूखे हुए अश्कों में अंधेरा घोलो...
सज़ा दो उसको मेरी आँख पे काजल की तरह...
गले में बाँध दो मजबूरियों का साँप कोई...
मेरी चोटी में अपनी काली हसरतें भर दो...
अपनी आँखों की पुतलियों को तुम बड़ा करके...
उन्हे जोड़ो, मेरे सीने से बाँध दो उनको....
मेरी कमर पे अपनी आँख की हवस बांधो....
हो मेरी उंगलियों में आग का छल्ला कोई...
मेरे पैरों में चमचमाती बेड़ियाँ बांधो...
उनमें खामोशियों के सुन्न से घुंघरू भी हों...
तुमने मर्दानगी को जब बना दिया गाली...
मुझे भी नोच लो, मुझको भी तुम औरत कर दो...
14 टिप्पणियाँ:
मार्मिक....
बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति.
अनु
बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति
बड़े दिनों बाद ऐसी खतरनाक कविता पढ़ी. लाजवाब!
:(
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (27 -4-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!
marmsaprshi
dard se bhari hui marmik abhivyakti...
बेहद आक्रोश भरी मर्मस्पर्शी रचना !
डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
latest post बे-शरम दरिंदें !
latest post सजा कैसा हो ?
तुमने मर्दानगी को जब बना दिया गाली...
मुझे भी नोच लो, मुझको भी तुम औरत कर दो...
AAAAAH SI NIKAL PADHI .PURUSH PATHER DIL NHI HOTE IS MYTH KO TODTI RACHNA
बहुत बढ़िया दिलीप
good
as usual very deep... and true in recent times..
रूह काँप गयी ......
बढ़िया....कटाक्ष
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