न हिंदू, न मुसलमान...
उसका मज़हब तो ग़रीबी था...
न भारत न पाकिस्तान...
उसका मुल्क तो मुफ़लिसी के...
६ फुट बाई २ फुट में घिरा...
एक ज़मीन का टुकड़ा था...
न जिहाद जानता था...
न धर्म युद्ध...
बस भूख जानता था...
और जानता था उसका दर्द...
इसीलिए
उसे मज़हबी आकाओं के इशारे पर...
मरते मारते देखा...
ज़िंदा
लोगों को एक पल में चीर देता था...
उस खून में उसको...
अपने घर का मुस्तक़बिल दिखता था...
या कभी यूँही खुद को भीड़ मे जाके...
उड़ा देता था...
धुएँ के गुबार में हंसते उसको अपने दिखते थे...
लोगों का क्या है...
उनके लिए वो बस आतंकवादी था...
जिहादी
था...
या धर्मांध था...
3 टिप्पणियाँ:
वर्तमान में हो रहे अनुभव की अनुभूति
सुंदर रचना
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
नवरात्रों की बधाई स्वीकार कीजिए।
लोग समझें कि यह हर स्थिति में त्याज्य है..किसी और का अहित करने के लिये भी आतंकवाद का आश्रय नहीं लिया जा सकता, यह भस्मासुर है।
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