बारूद तो तुम्हारे सीने मे भी है, मेरे सीने मे भी...
बस देखना ये है की चिंगारी पहले किसे छूती है...
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रात के घर की रसोई की वो गोल खिड़की खोलो ना...
जाने कबसे वो चाँदी का गोल ढक्कन लगा हुआ है...
चूल्हे के धुएँ से रात की माँ का दम घुटता होगा...
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चाँदी के वर्क मे चमचमाता हुआ वो देसी घी का लड्डू...
बड़े चाव से उसे उठाया तो देखा नीचे फफूंद लगी थी...
सोच मे पड़ गया की आख़िर ये लड्डू है या मेरा भारत....
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पिछ्ले पंद्रह दिनों से मैं चाँद के साथ पलक झपकाने का खेल खेल रहा था....
कम्बख़्त ने आज जाके हार मानी है, मुआ कल फिर अकड़ के चला आएगा...
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कलम ज़िंदगी मे बस डुबो ही दी है मैने...
अब बस जल्दी से कोई एक काग़ज़ दे दो...
ऐसा न हो कुछ लिखने से पहले ज़िंदगी सूख जाए....
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नब्ज़ का शोर था इतना ना तुझे सुन पाया...
वो थमे ज़रा तो तेरी हर बात सुनाई देगी...
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न जाने जिस्म के अंदर कहाँ दुबकी मरी सी है...
मिले जो मौत तू मुझको, मैं ज़िंदा रूह को कर लूँ...
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था कभी चमकता सोने सा, सब देख उसे ललचाते थे...
प्यासी आँखों से देख देख सब उसको नज़र लगाते थे...
बीमार हुआ बेचारा यूँ चेहरे पर उसके दाग पड़े...
बीमारी मे भी घूर रहे, अब उसमे रोटी ढूँढ रहे...
डरता है चाँद कहीं अब अमावस उसकी ज़िंदगी ना बन जाए...
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26 टिप्पणियाँ:
नब्ज़ का शोर था इतना ना तुझे सुन पाया...
वो थमे ज़रा तो तेरी हर बात सुनाई देगी..
दिलीप......कहाँ से लाते हैं ये भाव??
चुपके -चुपके...इतना..ढेर जमा..किया..बारूद का,
कभी देश,कभी चिंगारी,कभी माँ ,कभी चाँद,
बस मौत ,अमावस और भारत की बात करते हो,
ख्याल नहीं है तो बस -अपनी जिंदगी का .....
बहुत ही गहरे और खूबसूरत भाव
कलम ज़िंदगी मे बस डुबो ही दी है मैने...अब बस जल्दी से कोई एक काग़ज़ दे दो...ऐसा न हो कुछ लिखने से पहले ज़िंदगी सूख जाए....
बस शब्द नहीं बचे हैं इस अहसास को बयान करने के लिये हैं , आज का दिन इसे ही जी लें ।
इस तरह लिखने का चलन
तो जापान में पाया जाता है,
क्या हाईकू करने का इरादा है ?
nice thoughts, nevertheless...
बारूद तो तुम्हारे सीने मे भी है, मेरे सीने मे भी...
बस देखना ये है की चिंगारी पहले किसे छूती है...
बहुत बढ़िया प्रस्तुति....
नब्ज़ का शोर था इतना ना तुझे सुन पाया...
वो थमे ज़रा तो तेरी हर बात सुनाई देगी...
किस किस शेर की तारीफ़ करूँ और किन लफ़्ज़ो मे करूँ………………अगर चुन चुन कर भी लाउँगी तो भी कम पड जायेंगे………………कौन से दर्द मे कलम को डुबा कर लिखा है हर शेर्…………………ना जाने किस किस का दिल बींध जाये………………बेजोड प्रस्तुति।
आज लगता है चाँद को आप छोडोगे नहीं. लेकिन अब क्या होगा जब वो १५ दिन तक अकड के चलेगा?????
प्रभावशाली लेखन हैं सभी एहसासों में.
just awesome!
आपकी पोस्ट रविवार २९ -०८ -२०१० को चर्चा मंच पर है ....वहाँ आपका स्वागत है ..
http://charchamanch.blogspot.com/
बारूद , चाँद , मौत
सब एक से एक बिम्ब ...
नया अनोखा अंदाज़ ...
सोच मे पड़ गया की आख़िर ये लड्डू है या मेरा भारत....
ये तो सबसे ही अलग ...
बहुत बढ़िया ..!
क्षणिकायें क्षणिक नहीं थीं।
बहुत सुन्दर ....हर पंक्ति को पढ़ने के अलग सी सिहरन हुई| बेहतरीन ..बेहतरीन ...बेहतरीन|
waah dilip bhai bahut khub.....
aaj kal aap busy hain shayad....
meri rachnaon ko aapka intzaar hai....
न जाने जिस्म के अंदर कहाँ दुबकी मरी सी है...
मिले जो मौत तू मुझको, मैं ज़िंदा रूह को कर लूँ.
साहेब रूहें तो मर चुकी हैं........... गूदा तो खाया जा चूका है .... आम के छिलकों मान्दिंद यहाँ वहाँ - कचरे में हम पड़े हैं.
बहुत दिनों बाद लगा है कि आज सांस ली गयी,
जिन्दा तो थे पर तुमको नहीं पढ़ पा रहे थे........
अब और क्या कहूं,कुछ बाकी छूट गया हो तो बताना!
कुंवर जी,
बहुत सुन्दर, बेहतरीन!
दिलीप जी, यह तो सब दिल की कलम का नतीजा नहीं लगता, दिमाग की कलम से लिखने लगे हैं क्या?
कमाल की परिभाषायें, कमाल के बिम्ब, एकदम नया अंदाज़े-बयाँ. आप वक्रोक्ति के धनी हैं. आपकी लेखनी को मेरी लेखनी नमस्ते कह रही है. ज़रा बता दें.
haan aajkal dimaag se sochne lage hain...kuch soch rhe hain parivartan ka..khud me , kalam me, samaaj me , har jagah....bas aap sabhi ka ashirwad chahiye.... parivartan aayega...
बेहतरीन रचना---।
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
"नब्ज़ का शोर था इतना ना तुझे सुन पाया
वो थमे जरा तो तेरी हर बात सुनाई देगी"
दर्द की इन्तेहा है यह तो...पढने को बड़ा जिगरा चाहिए, दिलीप भाई.
बारूद का तो नहीं पाता लेकिन यहाँ तो एटम बम भरे पड़े हैं प्यारे.. कितना सुल्गाओगे अब??? :) ऐसे ही लिखते रहो.. सच कहूं तो बेलफास्ट के कविसम्मेलन में मेरा मन था कि तुम्हारी कोई रचना तुम्हारा नाम लेके पढूं.. लेकिन पहले से मेरा नाम लिस्ट में प्रायोजित नहीं था सिर्फ भारत से आये कवियों को पढ़ना था.. लेकिन अपन तो उन्हीं में से १-२ कवियों की मेहरबानी की भेंट चढ़ गए.. तैयारी कैसी चल रही है? सब ठीक है ना?
आपके ख्यालों की महफिल बहुत सुन्दर लगी......
दर्द की इन्तेहा है यह तो...पढने को बड़ा जिगरा चाहिए, दिलीप भाई.
वाह...
बहुत बेहतरीन..नायाब हीरे सी हैं एक एक पंक्तियाँ.
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