हम तोहमतें भेजें भी तो, भेजें भला कैसे...
हम बेवफा को बेवफा, लिख दें भला कैसे...
माना कि मेरा यार, अदाकार बड़ा है...
झूठा है चश्मे-तर, मगर देखें भला कैसे...
जिसको नहीं मालूम था तौर-ए-वफ़ा कभी...
उसको ही बेवफा सनम, लिखें भला कैसे...
तवा-ए-हुस्न तो मिला, वो आग न मिली...
हम इश्क़ की ये रोटियाँ सेंकें भला कैसे...
जिन बुतो ने हमसे की हर वक़्त बेरूख़ी...
खुदा, कलम से उनको ही कह दें भला कैसे...
हमपे है ये इल्ज़ाम, जबां है ज़रा बुरी...
अब दायरे में बँध के भी, लिखें भला कैसे...
जिनकी किरायेदार बन है उम्र कट रही...
हम आशियाना ख्वाब का दे दे भला कैसे...
है एक नज़्म में ही खुदा, मय, सनम, नमी...
अब इसके सिवा ज़िंदगी लिखें भला कैसे...
10 टिप्पणियाँ:
बहुत खूब..
है एक नज़्म में ही खुदा, मय, सनम, नमी...
अब इसके सिवा ज़िंदगी लिखें भला कैसे...
Behtareen, bahut hi khoob:-)
बहुत खूबसुरत गजल दिलीप जी ! वाह !
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हमपे है ये इल्ज़ाम, जबां है ज़रा बुरी...
अब दायरे में बँध के भी, लिखें भला कैसे...
बहुत सुंदर क्या बात हैं ........
आज की ब्लॉग बुलेटिन होली आई रे कन्हाई पर संभल कर मेरे भाई - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत बढ़िया ग़ज़ल...
अनु
प्रश्न है या अंतरात्मा की उथल पुथल !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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रंगों के पर्व होली की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ!
है एक नज़्म में ही खुदा, मय, सनम, नमी...
अब इसके सिवा ज़िंदगी लिखें भला कैसे...दिल छू गयी यह पंक्तियाँ ...:)
उम्दा शेरों से सजी खुबसूरत ग़ज़ल।
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