क़लम के साथ तजुर्बा बहुत ज़रूरी है...

Author: दिलीप /


अभी है इब्तेदा, प्यालों को फिर भरो साक़ी...
अभी तो चाँद में, हममें ज़रा सी दूरी है...

शरीफ नज़्म को महफ़िल कहाँ मयस्सर है...
ज़रा बदनाम भी होना बहुत ज़रूरी है...

कभी देखे हैं फकीरों की आँख में आँसू...
खुशी के वास्ते कहते हो छत ज़रूरी है..

उनसे कह दो हथेलियों से टहनियाँ न छुएँ...
क़ुफ्र होने को है, हवाएँ कुछ सुरूरी हैं...

पूरा मयखाना पी गये, नशा भी न हुआ...
भरी महफ़िल में तेरा ज़िक्र भी ज़रूरी है...

हमपे तोहमत है इश्क़ हमने कई बार किया...
क़लम के साथ तजुर्बा बहुत ज़रूरी है...

6 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत खूब..

वाणी गीत ने कहा…

कलम के साथ तजुर्बा जरुरी है , सही तो है !
अच्छी ग़ज़ल !

Anupama Tripathi ने कहा…

बहुत सुन्दर ....

शारदा अरोरा ने कहा…

gazal to bahut sundar hai..kai sari sachchaiyan byan karti hui...

Prabhakar ने कहा…

कमाल है, आपकी उर्दू बहुत अच्छी है, और उससे भी अच्छा आपका बयान करने का अंदाज़ है..मैं कहता हूँ, बहुत खूब!

बेनामी ने कहा…

बहुत सुन्दर ...

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