अभी अभी इक गुनाह हुआ था...
नन्ही सी इक नज़्म का...
मन की कोख में अबौर्शन कर दिया...
सोचा कितना बोझ...
क़लम पर बढ़ जाएगा...
ग़रीब क़लम बेचारी...
पहले भूख से तो लड़ ले...
फिर ऐसी क्यूँ नज़्म...
कि जिसकी किस्मत ही हो...
मुझे छोड़ कर इक दिन...
पराए कान का होना...
और उस पर, वो नज़्म कभी जब देखूँगा...
तुम भी उसके लफ़्ज़ों में दिख जाओगी न...
इसीलिए उस एक अधूरे रिश्ते...
की उस अजन्मी निशानी को...
मार दिया था...
अभी अभी तुम याद आई थी...
अभी अभी इक गुनाह हुआ था...
4 टिप्पणियाँ:
आह...
बेहतरीन....
(मगर जन्म लेती तो हाथों हाथ पल जाती..बड़ा नाम कमाती...)
अनु
जीवित रखिये शब्दों के प्यारी संरचना को।
waah..
गहन भाव ...
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