शेर की आड़ में भेड़ आते रहे...
देश जंगल के जैसा चलाते रहे...
ली छड़ी राम की, डोर करके खुदा....
वो सियासत का लट्टू घुमाते रहे...
कोई मुफ़लिस कहीं आग में जल गया...
वो जिस्म भून कर उसका खाते रहे...
ताजे हालात हमने भी देखे मगर...
वो खबर हमको बासी दिखाते रहे....
इश्क़ उसका ज़मीं से न मंजूर था...
पेड़ पर रस्सियों से झुलाते रहे....
खून, आँसू, घुटन, आग और बेड़ियाँ...
अपनी मर्दानगी यूँ दिखाते रहे...
अब कहीं जाके मुन्ने ने झपकी है ली...
रात भर ख्वाब उसको खिलाते रहे...
4 टिप्पणियाँ:
बहुत सटीक
Latest post हे माँ वीणा वादिनी शारदे !
सार्थकता लिये सशक्त लेखन ...
खून, आँसू, घुटन, आग और बेड़ियाँ...
अपनी मर्दानगी यूँ दिखाते रहे...
damdaar lekhan...
bahot khoob
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