मैने तो उसमें लिखा माँ से जो मिला मुझको...

Author: दिलीप /


अपने मज़हब के पैंतरे न तू सिखा मुझको...
बना सकेंगी क्या हदें कभी खुदा मुझको...

कितने चीरे थे चीथड़े, कोई सबूत भी दो...
कितनी लाशों में मिला राम या खुदा तुमको...

मैं लिख रहा था जिसे वो ही मुझे पढ़ न सका...
अपनी किस्मत से बस यही रहा गिला मुझको...

हिन्दी, उर्दू के नाखुदा में शुमारी क्या है...
मैने तो उसमें लिखा माँ से जो मिला मुझको...

8 टिप्पणियाँ:

Anupama Tripathi ने कहा…

बेहतरीन ....

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

बहुत सुन्दर
latest postउड़ान
teeno kist eksath"अहम् का गुलाम "

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

ग़ज़ब , बस ऐसे ही बहते रहे भावों में शब्द

Tamasha-E-Zindagi ने कहा…

शानदार | गज़ब |


कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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शिवम् मिश्रा ने कहा…

बहुत खूब दिलीप बाबू ... ऐसे ही सक्रिय बने रहो भाई ... बहुत अच्छा लगा है आप को पढ़ना !


आज की ब्लॉग बुलेटिन आम आदमी का अंतिम भोज - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

इमरान अंसारी ने कहा…

शानदार और बेहतरीन।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत लाजवाब ...

Tamasha-E-Zindagi ने कहा…

वाह हुज़ूर वाह क्या कविता कही आपने |

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