अपने मज़हब के पैंतरे न तू सिखा मुझको...
बना सकेंगी क्या हदें कभी खुदा मुझको...
कितने चीरे थे चीथड़े, कोई सबूत भी दो...
कितनी लाशों में मिला राम या खुदा तुमको...
मैं लिख रहा था जिसे वो ही मुझे पढ़ न सका...
अपनी किस्मत से बस यही रहा गिला मुझको...
हिन्दी, उर्दू के नाखुदा में शुमारी क्या है...
मैने तो उसमें लिखा माँ से जो मिला मुझको...
8 टिप्पणियाँ:
बेहतरीन ....
बहुत सुन्दर
latest postउड़ान
teeno kist eksath"अहम् का गुलाम "
ग़ज़ब , बस ऐसे ही बहते रहे भावों में शब्द
शानदार | गज़ब |
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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बहुत खूब दिलीप बाबू ... ऐसे ही सक्रिय बने रहो भाई ... बहुत अच्छा लगा है आप को पढ़ना !
आज की ब्लॉग बुलेटिन आम आदमी का अंतिम भोज - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शानदार और बेहतरीन।
बहुत लाजवाब ...
वाह हुज़ूर वाह क्या कविता कही आपने |
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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