पहले दुनिया कितनी दकियानूसी थी न...
सुबह सुबह अम्मा जब छत पे....
एक लोटे में जल और थोड़ा चावल लेकर...
सूरज को जैसे ही अर्ध्य दिया करती थी...
वैसे ही वो चिड़िया का झुंड...
चला आता था...
माँ के कंगन से जो डोर बाँध रखी थी सूरज की..
उसको थामे थामे
गीले चावल कुटर कुटर खाने को...
मैं उन चावल के दाने और चिड़ियों को बैठा...
गिनता रहता था....
दाने कम हुए तो कोई यूँ न हो भूखा रह जाए...
रिश्ता सा था शायद कोई...
वो भी मेरी माँ के शायद बच्चे होंगे...
कैसे थे वो लोग जो बस इक पौधे को...
आँगन में सज़ा लेते थे देवी बनाके....
कितने ही पेड़ों को बस इक धागे मे
अपना लेते थे...
बड बड करके कान में कोई अपना सा हो जाता था...
घर की पहली रोटी बाहर गाय को देने जाता था...
अम्मा कहती थी दादी है तेरी...
वो गैय्या भी मुँह हिलाते जाने क्या क्या...
आशीष देती रहती....
कौव्वे की छत पे कांव कांव हो...
तो लगे कोई डाकिया हो...
किसी आने वाले की खबर दे गया...
फिर पितरों के त्योहार पे आके...
पेट भरके त्योहारी ले जाता था...
कई पुरानी हवेलियों के कंधे के सहारे...
एक बाँस की खपच्ची सिर पे सिंहासन लिए...
झूलती रहती थी...
कबूतरों के शाहेंशाह रहा करते थे....
घर के बिजली के मीटर के दाएँ कोने...
एक किरायेदार रहा करता था घर में...
छोटा सा परिवार था उसका...
इक माँ थी दो बच्चे थे....
किराया तो कभी मिला नहीं...
पर चहकते घोंसले से..
घर में कुछ रौनक सी रहती थी....
साँप बंदरों चूहों की तो तगड़ी ब्रान्डिंग थी....
सबके सिर के पीछे सूरज ही दिखता था....
पर अब न वो अम्मा के अक्षत के चावल हैं....
न मेहमानों के आने की खबर देने वाले डाकिये...
अब कितने ही बूढ़े रिश्तों की डोरी...
सड़कों के चौड़े हो जाने में कटती रहती हैं....
लेकिन हमको क्या इन सबसे...
वो एहसासों की दुनिया थी...
ये अख़बारों की दुनिया है...
अब यूँही जीवन चलता है...
आगे का किसको खलता है....
हम तो तरक्की कर चुके हैं न...
पहले दुनिया कितनी दकियानूसी थी न....
7 टिप्पणियाँ:
पहले सबका ख्याल रखने वाली दुनिया मुझे अब भी समुन्नत लगती है।
chhoti se girasti mein sabke liye sab thaa aaj sab hai par sirf apne liye
अब कितने ही बूढ़े रिश्तों की डोरी...
जिसका सिरा नज़र ही नहीं आता ...
बेहतरीन........बहुत कुछ बदल गया :-((.......लाजवाब ।
अब तो यह दक़ियानूसी दुनिया भी केवल एक ख़्वाब है शायद एक कभी न पूरा होने वाला एक ख़्वाब....
ab itra bhi malo to mohabbat ki boo nahin, wo din hawa hue ke paseena gulab tha
ab itra bhi malo to mohabbat ki boo nahin, wo din hawa hue ke paseena gulab tha
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