टुकड़े जो दिल के छोड़े हैं, उनको अपने पास रखो...
चीज़ मेरी ही नहीं रही तो, साथ सज़ा के होगा क्या...
क्यूँ तुम झूठी उम्मीदों को सिरहाने रख जाते हो...
नींद नहीं जब बची आँख में, ख्वाब दिखा के होगा क्या...
गम को बस आँखों तक रखो, दिल को भी न आहट हो...
दिल की खाली तस्वीरों को हार चढ़ा के होगा क्या...
अब तो उम्मीदों की बोरी, सिर पर मेरे मत रखो....
मावस के अंधे को बोलो, चाँद दिखा के होगा क्या...
माना तेरी एक छुवन पत्थर सोना कर सकती है...
राख हो चुका है दिल मेरा, हाथ लगा के होगा क्या...
जो दिन भर इक जंग पेट की, जीने खातिर लड़ता हो...
इश्क़, चाँद, सागर की उसको, नज़्म सुना के होगा क्या ...
मिला मशविरा नज़्म भेज दो, लौट के वो आ जाएँगे...
वो मुझको पढ़ न पाया, तो शेर पढ़ा के होगा क्या...
10 टिप्पणियाँ:
wah...jaadoo hai aapki lekhni mein...
adbhoot, behtareen...
मन को पढ़ना सीखो साधो, मन को पढ़ना सीखो..
वो मुझको पढ़ ना पाया तो शे'र पढ़ा कर क्या होगा !
वाह वाह !
अब तो उम्मीदों की बोरी, सिर पर मेरे मत रखो....
मावस के अंधे को बोलो, चाँद दिखा के होगा क्या...
बहुत सुन्दर भाव संयोजन
वाह ... बहुत खूब।
क्यूँ तुम झूठी उम्मीदों को सिरहाने रख जाते हो...
नींद नहीं जब बची आँख में, ख्वाब दिखा के होगा क्या...
Kya baat kahee hai! Wah!
बहुत खुबसूरत ।
जो दिन भर इक जंग पेट की, जीने खातिर लड़ता हो...
इश्क़, चाँद, सागर की उसको, नज़्म सुना के होगा क्या ...
साहब... दिल छू गया ये शेर... वाह ... बस वाह !!
जो दिन भर इक जंग पेट की, जीने खातिर लड़ता हो...
इश्क़, चाँद, सागर की उसको, नज़्म सुना के होगा क्या ...
मिला मशविरा नज़्म भेज दो, लौट के वो आ जाएँगे...
वो मुझको पढ़ न पाया, तो शेर पढ़ा के होगा क्या...
वाह . देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग रहिये.
जानदार ..हमेशा की तरह
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