वो इक मजदूर था...
रात भर उसके सिर पर...
नज़मों का बोझ रखता रहा...
चाँद, तारे, सागर, अंबर...
मय, साक़ी, पैमानों के झुंड...
कितना कुछ वो एक नट की तरह....
सिर पर संहालता रहा...
सुबह होने को थी...
कुछ झिझक कर बोला..
कोई ऐसी नज़्म भी रखो न...
जिसमें रोटी के कुछ टुकड़े हो...
या गुड की ढेली...
या कुछ भी न हो तो...
शक्कर का पानी ही सही...
उम्मीद तो होगी कि..
बोझ में कुछ खाने को भी है....
मेरी ग़लती थी, भूल गया था..
वो इक मजदूर था...
13 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति... सुप्रभात!
ओह ....बहुत गहन अभिव्यक्ति .....बहुत अच्छी रचना ...
भावनात्मक बोझों को ढोना और उसे शब्दों में उतार देना उसका कार्य था।
बेहद सशक्त
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (06-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
आज 06-10-12 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
.... आज की वार्ता में ... उधार की ज़िंदगी ...... फिर एक चौराहा ...........ब्लॉग 4 वार्ता ... संगीता स्वरूप.
कुछ झिझक कर बोला..
कोई ऐसी नज़्म भी रखो न...
जिसमें रोटी के कुछ टुकड़े हो...
या गुड की ढेली...
बहुत सुंदर
bahut khoob, aur sach bhi to hai.........
उफ़ …………कितनी गहरी बात कही है।
मजदुर की पीड़ा को बखूबी शब्दों में
व्यक्त किया है..
बहुत बेहतरीन..
वाह बहुत ही खुबसूरत ।
ऐसे ही गूगल पे घुमते हुए आपके ब्लॉग तक आ गया दिल छु लिया आपने माँ सरस्वती का निवास है आपकी कलम मैं भगवन लंबी उम्र करे आपकी
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