मोहब्बत करते करते थक गये, कुछ यूँ भी हो जानां...
ज़रा एहसास हो हमको, तुम्हें मुझसे मोहब्बत है....
वही मुश्किल, वही मजबूरियाँ, ऐ इश्क़ ! अब बदलो...
कई सदियों से वैसे हो, मुझे इतनी शिकायत है...
उजाले बाँट डाले दिन को और बदनाम रातें हैं...
ज़रा कुछ तो उजाला हो, अंधेरों की भी चाहत है...
उन्हे लगता है, है मुझको ग़ज़ल उनसे बहुत प्यारी...
अजब है चाँद को भी आजकल तारों से दहशत है...
क़लम लेकर खड़े हैं हम, बड़ी ही कशमकश में है...
किसी के हाथ है स्याही, किसी के हाथ काग़ज़ है...
भले तुमको ये लगता हो, कि क़ाफ़िर हो चुके हैं हम...
खुदा हो तुम, ये मेरी शायरी, तेरी इबादत है....
बड़ी बदहाल है गीता, क़ुरानो के फटे पन्ने...
बड़ी बदली हुई सी आज मज़हब की इबारत है....
रहा करता था ग़ालिब नाम का शायर भी दिल्ली में....
वहीं पर इश्क़ बसता था, जहाँ टूटी इमारत है...
5 टिप्पणियाँ:
bahut badhiya likhaa hai ...
shubhkamnayen.
बहुत खूब..
बेहतरीन और सुन्दर हमेशा की तरह.......हमारे ब्लॉग जज़्बात......दिल से दिल तक की नई पोस्ट आपके ज़िक्र से रोशन है.....वक़्त मिले तो ज़रूर नज़रे इनायत फरमाएं -
http://jazbaattheemotions.blogspot.in/2012/08/10-3-100.html
oh.... shandar. dil ko chhu gai. sadar.
आखिरी शेर में तो गज़ब कर दिया जनाब.........वाह ।
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