चाय...
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अदरक की चाय...
तुलसी की चाय...
काली मिर्च की चाय...
मसाले की चाय...
इलायची की चाय...
इनमें से कुछ भी पसंद
नहीं आता...
अब तुम्हारे हाथ की चाय
जो नहीं मिलती...
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यादें...
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कल रात से बारिश हो रही है...
कागज़ी लॉन में भूल गया था उन्हें...
अभी उठा कर लाया हूँ...
अंदर हेंगर मे टाँग दिया हैं...
पर अंदर भी सीलन ही है...
वक़्त लगेगा सूखने में...
मोटे कपड़े की जो हैं...
कभी सर्द रातों मे ओढ़ लिया करता था उन्हे...
गर्माहट के लिए...
अब पुरानी हो चली है..
सोचता हूँ अब जब ठंड हो...
तो उन्हे जलाकर ही ताप लूँ..
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रोटी...
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कल बहुत दिन बाद...
कैक्टस मे फूल आए थे...
चूल्हा जो जला था, रोटी बनी थी...
थाली मे कुछ नमक और रोटी...
गाँव मे सब भूखे थे...
गाय, कुत्ते, लोग, पेड़ सब कोई...
पर शायद नदी को कुछ ज़्यादा ही भूख लगी थी...
चली आई घर में कुछ खाने...
मैने सोचा रोटी ही खाएगी...
पर वो तो सब खा गयी...
चूल्हा, छप्पर, यहाँ तक कि माँ और बेटा भी...
बस रोटी नहीं खाई...उसे हथेलियों मे पकड़े चली गयी...
रोटी अब आसमान मे दिखती है...
रोज़ उसके टुकड़े होते हैं...
इंसानो से ज़्यादा शायद आसमान भूखा था...
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मैं...
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मैं कुछ पन्नों भर का हूँ...
सामने कुछ मोटी लकीरों वाली नुमाइशी खबरें...
कुछ ब्रांड्स के इश्तिहार भी हैं...
थोड़ा पलटो तो अरमानों के बलात्कारों की खबरें...
ख्वाबों की दुर्घटनाएँ, भरोसे की लूट...
कुछ पुरानी यादों की बरसियाँ...
किसी एक पन्ने पर चमकती दमकती इच्छाएँ...
तीसरा पन्ना होगा शायद वो....
किसी एक पन्ने पर मन की दुनिया छपी मिलेगी...
पर रोज़ नया हो जाता हूँ मैं...
क्यूंकी लोग बासी पसंद नहीं करते...
पर कोई है जिसके पास मेरे कई बासी एडिशन पड़े होंगे...
उसके लिए मैं अख़बार नहीं था न इसलिए...
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बुजुर्ग...
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तुम खड़े मसाले की तरह...
घर मे छौंके जाते हो...
महका देते हो घर...
इक नया स्वाद दे देते हो...
पर जब खाने की बारी आती है...
तो बाहर निकाल देते हैं तुम्हें......
कहते हैं कि तुम मुँह मे आके...
स्वाद बिगाड़ देते हो...
10 टिप्पणियाँ:
वाह दिलीप जी.......
सभी लाजवाब.....
"बुज़ुर्ग" सबसे अच्छी.................दिल को छू गयी..
अनु
सभी टुकडियाँ लाजवाब्………रोटी और बुजुर्ग गज़ब हैं।
गहरे एहसास हैं सभी ... एक साथ पिरो दिये आपने ...
बहुत ही सुन्दर, स्वाद तो हाथों में था..
Ek se badhkar ek...
khaskar "Main" adbhut....
चाय मे किसी के हाथ का स्वाद ,
यादों मे खोया मन ..
कटु सत्य...
रोटी हर किसी की ज़रूरत ...
मैं अखबारों मे भी इंसानियत ढूँढता,
किसी मे कुछ बचा है क्या ...?
बुज़ुर्ग .....
ओह ....अत्यधिक गहन ....!!!!
सच कबूलना कितना मुश्किल है .....
अंतस तक झकझोर गयी ये पीड़ा.....
इंसानो से ज़्यादा शायद आसमान भूखा था...
bahut gahrai liye
तुम खड़े मसाले की तरह...
घर मे छौंके जाते हो...
महका देते हो घर...
इक नया स्वाद दे देते हो...
पर जब खाने की बारी आती है...
तो बाहर निकाल देते हैं तुम्हें......
कहते हैं कि तुम मुँह मे आके...
स्वाद बिगाड़ देते हो...
bahut hi sundar dil ko chhune wali rachna !
कल रात से बारिश हो रही है...
कागज़ी लॉन में भूल गया था उन्हें...
अभी उठा कर लाया हूँ...
अंदर हेंगर मे टाँग दिया हैं...
पर अंदर भी सीलन ही है...
वक़्त लगेगा सूखने में...
मोटे कपड़े की जो हैं...
कभी सर्द रातों मे ओढ़ लिया करता था उन्हे...
गर्माहट के लिए...
अब पुरानी हो चली है..
सोचता हूँ अब जब ठंड हो...
तो उन्हे जलाकर ही ताप लूँ..फिर से वे जी उठेंगे भीतर , बहुत ही शानदार अभिव्यक्ति
sach me chai to sirf tumahre haatho ki pasand hai..:)
पर जब खाने की बारी आती है...
तो बाहर निकाल देते हैं तुम्हें......
कमाल की अभिव्यक्ति है आपकी इन रचनाओं में...बेजोड़...भाव नए और अद्भुत हैं...मेरी बधाई स्वीकारें
नीरज
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