सालगिरह...
आँख
की छत से बारिश की झालर लटका दी है...
काग़ज़
का फ्लोर लगा दिया है...
कुछ गुज़रे लम्हों की फ्लैश लाइट लगा दी है
कुछ गुज़रे लम्हों की फ्लैश लाइट लगा दी है
थोड़ा
ओल्ड फैशंड हूँ न इसलिए...
पुरानी
गुरुदत्त वाली प्यासा के किसी गाने पर...
नीली
स्याही और कुछ लफ्ज़ बॉल डांस कर रहे हैं...
बस
अब नज़्म उगने ही वाली है...
अरे
मैं तो बताना ही भूल गया...
आज
किसी ज़ख़्म की सालगिरह है...
भीड़...
एक
गुच्छा, जो देखता रहता है तड़पते कीड़े को...
जैसे
सूरज देखता है धरती को मरते हुए...
कुछ
नही कहता...
बस
बड़ा होता जाता है...
और
जब बोझ सहन नहीं होता...
तो
गुच्छा बिखर जाता है....
आज
फिर कोई कीड़ा मर रहा है शायद...
काली
बेल पर हर बार की तरह...
एक
गुच्छा निकल आया है...
क़र्ज़...
क़र्ज़ उतर ही नहीं रहा था...
इसीलिए वो ज़हर लाया था मरने के लिए...
सोचा था किसी दिन खाने मे मिला के मर जाएगा...
आज हफ्ते भर बाद मरा है...
भूख से....
भिखारी...
वो भिखारी मेरे ही सामने दम तोड़ता रहा...
मैं वहाँ सिर्फ़ अपनी जेब ही टटोलता रहा...
क़र्ज़...
क़र्ज़ उतर ही नहीं रहा था...
इसीलिए वो ज़हर लाया था मरने के लिए...
सोचा था किसी दिन खाने मे मिला के मर जाएगा...
आज हफ्ते भर बाद मरा है...
भूख से....
भिखारी...
वो भिखारी मेरे ही सामने दम तोड़ता रहा...
मैं वहाँ सिर्फ़ अपनी जेब ही टटोलता रहा...
8 टिप्पणियाँ:
Kya baat hai! Kaash! Mai bhee is tarah likh sakun!
दिलीप तुम्हारे जैसी नज़र नहीं मिली हमको तभी सच्चाई सामने होते हुए नहीं देख पाते है .... सब सच और बेहतरीन तरीके से लिखा है
क्या कहूँ दिलीप जी......
शायद लफ्ज़ कम पड़ जाएँ.....
feelings and its expressions...both are excellent!!!!!
just superb!!
anu
गहन ...सम्वेदनशील लेखन .....!!
वो भिखारी मेरे ही सामने दम तोड़ता रहा...
मैं वहाँ सिर्फ़ अपनी जेब ही टटोलता रहा...बहुत कडवे सच लिख रहे हैं।
आपकी इन रचनाओं ने लाजवाब कर दिया..आखिर की दो तो बहुत मार्मिक हैं...
नीरज
गहरे पीड़ा उड़ेल गयी शब्दों में यह रचना..
कहने को अब कुछ बचा नहीं इसलिए बस अब आपकी सारी रचनाएँ बस पढे जा रही हूँ बिना किसी कमेंट के ...:)
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