माँ...
सुना है रोज़ रात, हड़बड़ा के उठती है...
फिर आँख मूंद के, जाने क्या बुदबुदाती है...
तभी शायद मैं यहाँ, चैन से सो पाता हूँ...
पापा...
वो मोम से बना, लोहे का एक पुतला है..
बस एक गुनगुनी छुवन से पिघल जाएगा...
बेटी...
इत उत फिरती है...
कितना उछलती है...
जो आता है पुचकार के जाता है...
पर एक खूँटे से बँधी है...
गला कभी नहीं खुलता...
बस खूँटा उखड़ता है...
कहीं और गाड़ने के लिए...
गाय होती तो यूँही बिक भी जाती...
एक गाड़ी मे जोत के भेजी जाती है...
ढेर सा सामान बाँध के...
जानवर नहीं है न इसलिए...
कुआँ...
मैने उसकी बस एक झलक ही देखी थी...
कभी एक बार पानी भरने आई थी...
सोने के कंगन मेरे पत्थर को छूकर गुज़रे थे....
घूँघट के अंदर से ही झाँका था उसने...
दो काले बादल बरस के मुझे भरने को थे....
आज कोई गोद मे मेरी सुला गया है उसे...
उन हथेलियों पर ज़ुल्म की कालिख लगी थी...
आँखें सूख चुकी थी...
अब सोचता हूँ वो सोने की छुवन थी...
या फिर हथकड़ी की रगड़....
यही सोचते सोचते...
मेरा पानी कुछ खारा हो गया...
9 टिप्पणियाँ:
कुंएं की व्यथा ने तो रुला ही दिया
पूरी रचना मानवीय संवेदनाओ को कुरेदती हुयी...
कुँवर जी,
बहुत गहन ...मर्मस्पर्शी .....
जागा हुआ लेखन है ,जो अपने आप-पास की व्यथा देख लेता है ...!!
कम लोगों मे होती है ...इतनी सहिष्णुता ....!!
बहुत शुभकामनायें.
गहरा, कुआँ सा..
संवेदित अभिव्यक्ति! आभार!
बहुत सुंदर दिलीप जी.....
मन को छू गयीं हर एक रचना.....
भीग गयी आँखें.
अनु
उफ़्फ़!
ek ek abhivyanjana bahut jabardast, aapki anubhavi kalam ki kahani kahti hui.
बेहद मर्मस्पर्शी और संवेदनशील रचनायें।
वाह वाह क्या बात है बहुत ही बढ़िया गहन भाव अभिव्यक्ति....
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